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बुधवार, 12 जून 2019

बाइबल का दैनिक पाठ: प्रभु यीशु द्वारा सब्त के दिन का पालन न किया जाना हमें क्या चेतावनी देता है?

ली किंग, चीन
एक दिन सबेरे-सबेरे, जब मैं अपने आध्यात्मिक भक्ति में लगी हुई थी, तो मैंने बाइबिल में लिखी इन बातों को देखा: "उस समय यीशु सब्त के दिन खेतों में से होकर जा रहा था, और उसके चेलों को भूख लगी तो वे बालें तोड़-तोड़कर खाने लगे।
फरीसियों ने यह देखकर उससे कहा, "देख, तेरे चेले वह काम कर रहे हैं, जो सब्त के दिन करना उचित नहीं।" उसने उनसे कहा, ...पर मैं तुम से कहता हूँ कि यहाँ वह है जो मन्दिर से भी बड़ा है। यदि तुम इसका अर्थ जानते, 'मैं दया से प्रसन्न होता हूँ, बलिदान से नहीं,' तो तुम निर्दोष को दोषी न ठहराते। मनुष्य का पुत्र तो सब्त के दिन का भी प्रभु है" (मत्ती 12:1-3, 6-8)। इस अंश को पढ़ने के बाद, मैं गहरी सोच में डूब गई: "व्यवस्था के युग में, यहोवा ने आम लोगों को सब्त रखने का निर्देश दिया था। सब्त के दिन, आम आदमी को सारे काम रोक देने होते थे; अगर वे उस दिन काम करना नहीं रोकते, तो वह एक पाप होता, और उनको इसका हिसाब देना पड़ता था। जब प्रभु यीशु अपना कार्य करने के लिए आये, तो उन्होंने सब्त का दिन नहीं रखा, बल्कि वे अपने शिष्यों को विभिन्न स्थानों में सुसमाचार का प्रचार और कार्य करने के लिए ले गये। ऐसा क्यों किया गया था? प्रभु यीशु द्वारा ऐसा करना हमें क्या चेतावनी देता है? मैंने काफ़ी समय तक इस पर विचार किया, लेकिन मैं फिर भी इसे समझ नहीं पाई।

कई दिनों के बाद, मैंने सुना कि मेरी सहकर्मी सू उपदेश सुनने की एक यात्रा से लौटी थी, इसलिए मैं उससे मिलने उसके घर चली गई। उसने खुशी-खुशी वो सारी बातें मुझे बताई जो उपदेशों को सुनकर उसे समझ आई थीं। फिर उसने एक पुस्तक निकाली। उसने बताया कि इस पुस्तक ने ऐसे कई सत्यों और रहस्यों को उजागर किया था, जो पहले कभी नहीं सुनी गई थीं। उसने कहा कि उसने पुस्तक का काफ़ी हिस्सा पढ़ा था, और वह इसे जितना अधिक पढ़ती थी, उसके हृदय में उतना ही अधिक प्रकाश भरता जाता था। उसने कहा कि उसे ऐसे कई सत्य समझ में आ गये, जिन्हें उसने पहले नहीं समझा था। सहकर्मी सू की बातें सुनने के बाद, मैं पूरे दिल से परमेश्वर की तैयारियों का धन्यवाद करने लगी और मैं उसे यह बताने से खुद को नहीं रोक पाई कि पिछले कुछ दिनों से कौन सी बात ने मुझे उलझन में डाल रखा था। उसने मुस्कुराते हुए मुझसे कहा, "प्रभु का धन्यवाद। यह पुस्तक इस मुद्दे के बारे में बहुत स्पष्ट रूप से बताती है कि प्रभु यीशु ने सब्त के दिन कार्य क्यों किया था। आओ इसे साथ मिलकर देखते हैं।" यह कहते हुए उसने पुस्तक को खोला और मुझे इसका एक अंश पढ़ने के लिए दिया। मैंने पढ़ा: "जब प्रभु यीशु मसीह आया, तो उसने लोगों से संवाद करने के लिए अपने व्यावहारिक कार्यों का उपयोग कियाः परमेश्वर ने व्यवस्था के युग को अलविदा किया था और नए कार्य का प्रारम्भ किया था, और इस नए कार्य को सब्त का पालन करने की आवश्यकता नहीं थी; जब परमेश्वर सब्त के दिन की सीमाओं से बाहर आ गया, तो यह उसके नए कार्य का बस एक पूर्वानुभव था, और उसका सचमुच का महान कार्य लगातार जारी हो रहा था। जब प्रभु यीशु ने अपना कार्य प्रारम्भ किया, तो उसने पहले से ही व्यवस्था की जंज़ीरों को पीछे छोड़ दिया था, और उस युग के विधि-विधानों और सिद्धांतों को तोड़ दिया था। उसमें, व्यवस्था से जुड़ी किसी भी चीज़ का निशान नहीं था; उसने उसे पूर्णत: उतार कर फेंक दिया था तथा उसका अब और अनुसरण नहीं करता था, और उसने मनुष्यजाति से उसका अब और अनुसरण करने की अपेक्षा नहीं की थी। इसलिए तुम यहाँ देखते हो कि प्रभु यीशु सब्त के दिन अनाज के खेतों से होकर गुज़रा, प्रभु ने आराम नहीं किया, बल्कि बाहर काम करता रहा। उसका यह कार्य लोगों की धारणाओं के लिए एक आघात था और इसने उन्हें सूचित किया कि वह व्यवस्था के अधीन अब और जीवन नहीं बिताएगा, और यह कि उसने सब्त की सीमाओं को छोड़ दिया है और एक नई कार्यशैली के साथ वह मनुष्यजाति के सामने और उनके बीच एक नई छवि में प्रकट हुआ है। उसके इस कार्य ने लोगों को बताया कि वह अपने साथ एक नया कार्य लाया है जो व्यवस्था से बाहर जाने और सब्त से बाहर जाने से आरम्भ हुआ था। जब परमेश्वर ने अपना नया कार्य कार्यान्वित किया, तो वह अतीत से अब और नहीं चिपका रहा, और वह व्यवस्था के युग की विधियों के बारे में अब और चिन्तित नहीं था। न ही वह पूर्ववर्ती युग के अपने कार्य से प्रभावित था, बल्कि उसने सब्त के दिन में भी सामान्य रूप से कार्य किया और जब उसके चेले भूखे थे, तो वे अनाज की बालें तोड़कर खा सकते थे। यह सब कुछ परमेश्वर की निगाहों में बिल्कुल सामान्य था। परमेश्वर के पास अधिकांश कार्य के लिए जिसे वह करना चाहता है और अधिकांश चीज़ों के लिए जो वह कहना चाहता है एक नई शुरूआत हो सकती है। एक बार जब उसने एक नई शुरूआत कर दी, तो वह न तो फिर से अपने पिछले कार्य का उल्लेख करता है और न ही उसे जारी रखता है। क्योंकि परमेश्वर के पास उसके कार्य के स्वयं के सिद्धांत हैं। जब वह नया कार्य शुरू करना चाहता है, तो यह तब होता है जब वह मनुष्यजाति को अपने कार्य के एक नए स्तर में पहुँचाना चाहता है, और जब उसका कार्य एक उच्चतर चरण में प्रवेश कर लेता है। यदि लोग लगातार पुरानी कहावतों या विधि-विधानों के अनुसार काम करते रहेंगे या उन्हें निरन्तर मज़बूती से पकड़ें रहेंगे, तो वह इसका उत्सव नहीं मनाएगा और इसकी प्रशंसा नहीं करेगा। ऐसा इसलिए है क्योंकि वह पहले से ही एक नए कार्य को ला चुका है, और अपने कार्य में एक नए चरण में प्रवेश कर चुका है। जब वह एक नए कार्य को आरम्भ करता है, तो वह मनुष्यजाति के सामने पूर्णतः नई छवि में, पूर्णतः नए कोण से, और पूर्णतः नए तरीके से प्रकट होता है ताकि लोग उसके स्वभाव के भिन्न-भिन्न पहलुओं को और उसके स्वरूप को देख सकें। यह उसके नए कार्य में उसके लक्ष्यों में से एक है। परमेश्वर पुराने को थामे नहीं रहता है या घिसे-पिटे मार्ग को नहीं लेता है; जब वह कार्य करता और बोलता है तो यह उतना निषेधात्मक नहीं होता है जितना लोग कल्पना करते हैं। परमेश्वर में, सभी स्वतंत्र और मुक्त हैं, और कोई निषेधात्मकता नहीं है, कोई लाचारी नहीं है—जो वह मनुष्यजाति के लिए लाता है वह सम्पूर्ण आज़ादी और मुक्ति है। वह एक जीवित परमेश्वर है, एक ऐसा परमेश्वर जो असलियत में, और सचमुच में अस्तित्व में है। वह कोई कठपुतली या मिट्टी की मूर्ति नहीं है, और वह उन मूर्तियों से बिल्कुल भिन्न है जिन्हें लोग प्रतिष्ठापित करते हैं और जिनकी आराधना करते हैं। वह जीवित और जीवन्त है और उसके कार्य और वचन मनुष्यों के लिए जो लेकर आते हैं वे हैं सम्पूर्ण जीवन और ज्योति, सम्पूर्ण स्वतन्त्रता और मुक्ति, क्योंकि वह सत्य, जीवन, और मार्ग को धारण करता है—और वह अपने किसी भी कार्य में किसी भी चीज़ के द्वारा विवश नहीं होता है। … इस प्रकार, प्रभु यीशु मसीह खुलकर बाहर जा सकता था और सब्त के दिन कार्य कर सकता था क्योंकि उसके हृदय में कोई नियम नहीं थे, और वहाँ मानव जाति से उत्पन्न कोई ज्ञान और सिद्धांत नहीं था। जो उसके पास था वह परमेश्वर का नया कार्य और उस का मार्ग था, और उस का कार्य मानव जाति को स्वतन्त्र करना था, उसे मुक्त करना था, उन्हें ज्योति में बने रहने की अनुमति देना था, और उन्हें जीने की अनुमति देना था।" ("परमेश्वर का कार्य, परमेश्वर का स्वभाव और स्वयं परमेश्वर III")।
इस अंश को पढ़ने के बाद मुझे थोड़ा-बहुत समझ आया और मैंने सहकर्मी सू से कहा: "तो जब प्रभु यीशु अपना कार्य करने के लिए आये, उन्होंने सब्त के दिन का पालन नहीं किया, बल्कि वे अपने शिष्यों को विभिन्न स्थानों में सुसमाचार का प्रचार करने और काम करने के लिए गये। उन्होंने ऐसा उस समय के लोगों को यह बताने के लिए किया कि परमेश्वर ने व्यवस्थाओं को पीछे छोड़ दिया था और अब वे एक नया कार्य कर रहे थे। वे लोगों को एक नये युग में ले जाना चाहते थे। ऐसा लगता है कि परमेश्वर के हर एक कार्य के पीछे उनकी इच्छा निहित है!"

सहकर्मी सू ने मुझसे कहा, "हाँ, यह अंश बहुत स्पष्ट रूप से यह बताता है कि प्रभु यीशु ने सब्त के दिन कार्य क्यों किया था। जब परमेश्वर कार्य करते हैं, तो वे कार्य करने के पुराने तौर-तरीकों से चिपके नहीं रहते हैं और वे पुराने रास्तों पर नहीं चलते हैं। परमेश्वर भ्रष्ट मानवजाति की ज़रूरतों के मुताबिक हमेशा नये और उच्चतर कार्य करते हैं। जब परमेश्वर कोई नया कार्य करते हैं, तो वे पुराने कार्य से बंधे नहीं रहते हैं, और अगर लोग पुरानी प्रथाओं का पालन करते हैं तो वे नियमों से चिपके रहते हैं। सिर्फ़ पुराने नियमों एवं प्रथाओं को छोड़कर और परमेश्वर के कार्य के पदचिह्नों का बारीकी से पालन करके ही लोग उनका उद्धार प्राप्त कर सकते हैं। उदाहरण के लिए, व्यवस्था के युग में परमेश्वर ने धरती पर इंसानों के जीवन का मार्गदर्शन करने के लिए मूसा के माध्यम से व्यवस्थाओं और आज्ञाओं की घोषणा की थी। इंसान से परमेश्वर की अपेक्षा थी कि वो इन व्यवस्थाओं और आज्ञाओं का पालन करे और सब्त का दिन ज़रूर रखे। ऐसा इसलिए था क्योंकि उस समय के लोग अपने जीवन को चलाने का तरीका नहीं जानते थे, और वे यह भी नहीं जानते थे कि परमेश्वर की आराधना करना क्या होता है। वे परमेश्वर की आराधना करने के तरीके या कार्य के समय और इस तरह की बातों के बारे में कुछ नहीं जानते थे। परमेश्वर यह नहीं चाहते थे कि इंसान दिन भर अपने आपको व्यस्त रखे, दिन शुरू होते ही काम करने लगे और शाम होने पर आराम करे, सिर्फ़ भोजन, कपड़े और आवास के लिए जीवन जिये और अपने परिवारों का पालन-पोषण करता रहे। इसलिए, उन्होंने अपनी व्यवस्थाओं और आज्ञाओं की घोषणा की, जिनका पालन करना इंसान के लिए ज़रूरी है। उन्होंने इंसान के लिए सब्त का दिन बनाया, जिसके मुताबिक यह आवश्यक था कि लोग हफ़्ते के छः दिन काम करें, और फिर सातवें दिन सारा काम रोक दें, ताकि वे परमेश्वर के समक्ष आकर उनकी आराधना कर सकें। लेकिन व्यवस्था के युग के अंत में, इंसान शैतान के द्वारा अधिक से अधिक भ्रष्ट होता चला गया। देखने को भले ही वे सब्त का दिन रखते थे और सब्त के दिन परमेश्वर की आराधना और गुणगान करते थे, लेकिन अब उनके दिलों में परमेश्वर की सच्ची आराधना नहीं रह गयी थी। सब्त का दिन रखने के बावजूद, उनके लिए यह सिर्फ़ एक तरह से ऐसे नियम या रिवाज का पालन करना था, जिसका कोई अर्थ नहीं था। इसलिए, जब प्रभु यीशु अपना कार्य करने के लिए आये, तो उन्होंने इंसान की ज़रूरतों को देखते हुए पश्चाताप का मार्ग बताया। उन्होंने लोगों को सब्त के दिन के नियमों और प्रथाओं का पालन करने से जोड़कर नहीं रखा। इसके बजाय, उन्होंने नियमों और सब्त के दिन को पीछे छोड़ देने के लिए कहा। उन्होंने इंसान के लिए नई अपेक्षाएं प्रस्तावित कीं: अंतर्मन से और सच्चे दिल से परमेश्वर की आराधना करना। इस तरीके से, लोग अभ्यास का एक नया, उच्चतर मार्ग पाने में सक्षम थे, सिर्फ़ पुराने नियमों एवं प्रथाओं को छोड़कर और परमेश्वर की अपेक्षाओं के अनुसार अभ्यास करके ही वे प्रभु से मिली शांति और खुशी का आनंद उठा सकते थे और परमेश्वर की देखरेख एवं सुरक्षा में जीवन बिता सकते थे। बाहर से देखने पर ऐसा लगता था मानो सब्त का दिन न रखकर प्रभु यीशु व्यवस्थाओं को छोड़ रहे थे, लेकिन असल में वे व्यवस्थाओं का पालन कर रहे थे, और लोगों को नियमों एवं परंपराओं का पालन करने की जगह अंतर्मन से और सच्चे दिल से परमेश्वर की आराधना करने में सक्षम बना रहे थे। यह एक अधिक गहन अभ्यास और परमेश्वर की आराधना के मार्ग में प्रवेश था जिसने लोगों को परमेश्वर के दिल के अधिक करीब और अंतरंग होने के काबिल बनाया। अगर प्रभु ने व्यक्तिगत रूप से अपने शिष्यों को सब्त का दिन अपने पीछे छोड़ देने के लिए उनकी अगुवाई नहीं की होती, तो कोई भी व्यवस्थाओं की बाधाओं के पार जाने में कामयाब न हुआ होता। परमेश्वर द्वारा स्वयं निरंतर नये कार्य करते रहने के कारण ही लोग अभ्यास का एक नया मार्ग पाने और आत्मा की मुक्ति एवं आज़ादी हासिल करने में सक्षम हो पाये। परमेश्वर के कार्य से, हम यह देख सकते हैं कि परमेश्वर सच्चे और जीवंत परमेश्वर हैं, और यह कि परमेश्वर के साथ न तो कोई नियम होता है और न ही कोई पाबंदी होती है। जब परमेश्वर कोई नया कार्य करते हैं, तो वे व्यवस्थाओं या नियमों द्वारा सीमित नहीं होते, और वे पुराने कार्य से चिपके नहीं रहते हैं। परमेश्वर सदा नये रहते हैं और कभी पुराने नहीं होते। वे हमेशा इंसान को एक नये, उच्चतर कार्यक्षेत्र की ओर ले जाते हैं। जब परमेश्वर ने अपना नया कार्य किया, तो वे पुराने नियमों या प्रथाओं से चिपके नहीं रहे; उन्होंने एक बिल्कुल नये तरीके से लोगों के बीच रहकर कार्य किया, और इस तरह लोगों को अभ्यास का एक नया मार्ग अपनाने में सक्षम बनाया। अंततः, उन्होंने लोगों को व्यवस्थाओं से बचाया और उन्हें अपने समक्ष बंधनों से मुक्त होकर आजादी से जीवन जीने और अपना उद्धार पाने के काबिल बनाया।"
सहकर्मी सू की संगति सुनने के बाद, मैंने उत्साह में कहा: "अब मेरा दिल कितना साफ़ हो गया है! परमेश्वर का कार्य बहुत ही व्यावहारिक है और वे कार्य करने के पुराने तरीकों से बिल्कुल भी चिपके नहीं रहते हैं। वे हमारी ज़रूरतों के मुताबिक हमेशा नये कार्य करते हैं, वे हमें अभ्यास के नये मार्ग दिखाते हैं, और वे अपनी आराधना करने और अपने आशीषों का आनंद लेने के लिए अपने समक्ष आने का बेहतर अवसर प्रदान करते हैं। अगर परमेश्वर ने नया कार्य नहीं किया होता और सब्त के दिन से दूर जाने में लोगों का मार्गदर्शन नहीं किया होता, तो लोग हमेशा व्यवस्थाओं के बंधनों में जकड़े रहते; वे नियमों और परंपराओं में बंधकर परमेश्वर की आराधना करते रहते और व्यवस्थाओं का उल्लंघन करने के लिए निंदा और दंड के भागी बनते रहते। वाकई परमेश्वर हमसे कितना अधिक प्रेम करते हैं!"
सहकर्मी सू ने अपना सिर हिलाया और मुस्कुराते हुए कहा, "हाँ, वाकई। परमेश्वर द्वारा किये जाने वाले हर एक कार्य का एक गहरा अर्थ है, और उनमें हम इंसानों के लिये परमेश्वर का प्रेम भरा हुआ है! इसलिए, जब परमेश्वर कोई नया कार्य करते हैं, तो चाहे परमेश्वर का कार्य हमारी भ्रांतियों और कल्पनाओं से मेल खाता हो या नहीं, चाहे हम इसे समझ पाते हों या नहीं, हमें हमेशा परमेश्वर की इच्छा की खोज करनी चाहिए और उनके प्रति अपने दिल में पूरे सम्मान के साथ उनके कार्य को जानने की कोशिश करनी चाहिए, क्योंकि सिर्फ़ इसी तरीके से हम परमेश्वर के पदचिह्नों का बारीकी से पालन कर सकते हैं और उनका उद्धार हासिल कर सकते हैं। अगर हम घमंडी और अभिमानी बने रहते हैं, और परमेश्वर के नये कार्य को नहीं जानते या उसकी खोज नहीं करते हैं, तो हम निश्चित रूप से परमेश्वर के ख़िलाफ़ विद्रोह और उनका विरोध करेंगे, और इस तरह हम परमेश्वर के उद्धार को गँवा देंगे—फिर इसके परिणामों की तो बात ही क्या कहें! उदाहरण के लिए, उस समय के प्रधान याजकों, शास्त्रियों और फरीसियों ने स्पष्ट रूप से देखा कि प्रभु यीशु के वचनों और कार्य में अधिकार और सामर्थ्य था, लेकिन उन्होंने खुले दिमाग से सत्य की खोज नहीं की, न ही वे परमेश्वर के कार्य के बारे में जानते थे। इसके बजाय, वे नियमों और व्यवस्थाओं के बंदिशों से सख्ती से चिपके रहे, वे यह कहकर प्रभु यीशु के कार्य और वचनों की निंदा करने में उनका इस्तेमाल करते रहे कि वे पुराने विधान से दूर चले गये हैं। उन्होंने प्रभु यीशु द्वारा सब्त का दिन न रखे जाने को नियमों का उल्लंघन मानकर उनकी आलोचना की। उन्होंने हर मोड़ पर प्रभु यीशु के कार्य की तुलना यहोवा के कार्य से की और जब तक यीशु के कार्य उनकी खुद की भ्रांतियों एवं कल्पनाओं से मेल नहीं खाते थे, तब तक उन्होंने प्रभु यीशु की निंदा की, उनके बारे में अपनी राय बनायी और यहां तक कि उनका तिरस्कार भी किया। अंत में, उन्होंने रोम के अधिकारियों से सांठगांठ करके प्रभु यीशु को क्रूस पर चढ़ा दिया, और इस तरह वे परमेश्वर के अभिशाप और दंड के भागी बने। फरीसियों की विफलता की सबक हमारे लिए एक चेतावनी है कि इससे कोई फ़र्क नहीं पड़ता है कि परमेश्वर कहां प्रकट होते हैं और वे किस तरीके से कार्य करते हैं, हम हमारी भ्रांतियों और कल्पनाओं पर भरोसा नहीं कर सकते। हम परमेश्वर के नये कार्य को छोटा दिखाने के लिए उनके पिछले कार्य का इस्तेमाल नहीं कर सकते। परमेश्वर की बुद्धि इतनी अद्भुत और अथाह है; इससे कोई फ़र्क नहीं पड़ता कि परमेश्वर क्या कार्य करते हैं, वे बेहतर तरीके से मानवजाति को बचाने के लिए ऐसा करते हैं, और इन सबके पीछे परमेश्वर की इच्छा और उनके अथक प्रयास निहित हैं। हम—भ्रष्ट इंसान—परमेश्वर के कार्य की थाह भी नहीं पा सकते। हम सिर्फ़ अपने दिलों में पूरे आदर के साथ परमेश्वर के कार्य की खोज कर सकते हैं और उसे स्वीकार कर सकते हैं, क्योंकि केवल इसी तरीके से हम परमेश्वर की स्वीकृति और आशीष पाने में सक्षम हो सकेंगे।"
मैंने अपना सिर हिलाया और सहकर्मी सू से कहा, "हाँ! परमेश्वर कितने बुद्धिमान हैं, कितने सर्वशक्तिमान हैं, हम इंसान भला उनके कार्य की थाह कैसे पा सकते हैं? जैसा कि बाइबल में कहा गया है: 'आहा! परमेश्‍वर का धन और बुद्धि और ज्ञान क्या ही गंभीर है! उसके विचार कैसे अथाह, और उसके मार्ग कैसे अगम हैं! प्रभु की बुद्धि को किसने जाना? या उसका मंत्री कौन हुआ?' (रोमियों 11:33-34)। परमेश्वर के नये कार्य के प्रति हमारे दृष्टिकोण में, हमें अपने दिलों में परमेश्वर के प्रति पूरा सम्मान रखते हुए इन बातों की अधिक खोज और अध्ययन करना चाहिए, तभी हम परमेश्वर का उद्धार पाने में सक्षम होंगे! प्रभु का धन्यवाद! आज की संगति से वाकई मुझे काफ़ी फ़ायदा हुआ है!"
"प्रभु का धन्यवाद!"

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