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सर्वशक्तिमान परमेश्वर की कलीसिया की मूलभूत मान्यताएँ

(1)  सर्वशक्तिमान परमेश्वर की  कलीसिया  के सिद्धांत ईसाई धर्म के सिद्धांत बाइबल से उत्पन्न होते हैं, और  सर्वशक्तिमान परमेश्वर  की क...

गुरुवार, 6 सितंबर 2018

कार्य और प्रवेश (6)

परमेश्वर को जानना, मसीह के कथन, सर्वशक्तिमान परमेश्वर के कथन

कार्य और प्रवेश (6)

कार्य और प्रवेश अंतर्निहित रूप से व्यावहारिक हैं और परमेश्वर के कार्य और आदमी की प्रविष्टि को संदर्भित करते हैं। मनुष्य का परमेश्वर के वास्तविक चेहरे और परमेश्वर के कार्य की समझ का पूर्ण अभाव उसके प्रवेश में बड़ी कठिनाइयाँ लाया है। आज तक, बहुत से लोग अब भी उस कार्य को नहीं जानते जो परमेश्वर अंत के दिनों में निष्पादित करता है या नहीं जानते हैं कि परमेश्वर देह में आने के लिए चरम अपमान क्यों सहन करता है और सुख और दुःख में मनुष्य के साथ खड़ा होता है। मनुष्य परमेश्वर के कार्य के लक्ष्य के बारे में कुछ भी नहीं जानता है, न ही अंत के दिनों के लिए परमेश्वर की योजना के प्रयोजन को जानता है। विभिन्न कारणों से, लोग हमेशा उस प्रवेश के प्रति सदैव निरुत्साहित और अनिश्चित[1] रहते हैं जिसकी परमेश्वर माँग करता है, जो देह में परमेश्वर के कार्य के लिए बड़ी कठिनाइयाँ लाया है। सभी लोग बाधाएँ बन गए प्रतीत होते हैं, और आज तक, उनके पास कोई स्पष्ट समझ नहीं है। इसलिए मैं उस कार्य के बारे में बात करूँगा जो परमेश्वर मनुष्य पर करता है, और जो परमेश्वर का अत्यावश्यक अभिप्राय है, ताकि तुम सभी लोग परमेश्वर के वफ़ादार सेवक बन जाओ, जो अय्यूब की तरह, परमेश्वर को अस्वीकार करने के बजाय मर जाएँगे और हर अपमान को सहन करेंगे, और, जो पतरस की तरह, अपना समस्त अस्तित्व परमेश्वर को अर्पण करें देंगे और अंत के दिनों में परमेश्वर द्वारा प्राप्त किए गए अंतरंग बन जाएँगे। सभी भाई-बहन, परमेश्वर की स्वर्गिक इच्छा के प्रति अपने समस्त अस्तित्व को अर्पण करने के लिए अपनी सामर्थ्य के अंदर सब कुछ करें, परमेश्वर के घर में पवित्र सेवक बन जाएँ, और परमेश्वर द्वारा प्रदान किए गए अनंत वादों का आनंद लें, ताकि परमपिता परमेश्वर का हृदय शीघ्र ही शांतिपूर्ण आराम का आनंद ले सके। "परमपिता परमेश्वर की इच्छा को पूरा करो" उन सभी का आदर्श वाक्य होना चाहिए जो परमेश्वर से प्रेम करते हैं। इन वचनों को प्रवेश के लिए मनुष्य की मार्गदर्शिका और उसके कार्यों का निर्देशन करने वाले कम्पास के रूप में कार्य करना चाहिए। मनुष्य में यही संकल्प होना चाहिए। पृथ्वी पर परमेश्वर के कार्य को पूरी तरह से निष्पन्न करना और देह में परमेश्वर के कार्य में सहयोग करना—यही मनुष्य का कर्तव्य है। एक दिन, जब परमेश्वर का कार्य हो जाएगा, तो मनुष्य उसे स्वर्ग में परमपिता के पास शीघ्र वापसी पर विदाई देगा। क्या मनुष्य को यह दायित्व पूरा नहीं करना चाहिए?
जब, अनुग्रह के युग में, परमेश्वर तीसरे स्वर्ग में लौटा, तो समस्त मानव जाति के छुटकारे का परमेश्वर का कार्य वास्तव में पहले से ही अपनी समापन की क्रिया में चला गया था। धरती पर जो कुछ भी शेष रह गया था वह था सलीब जिसे यीशु ने ढोया था, बारीक सन का कपड़ा जिसमें यीशु को लपेटा गया था, और काँटों का मुकुट और लाल रंग का लबादा जो यीशु ने पहना था (ये वे वस्तुएँ थीं जिन्हें यहूदियों ने उसका मज़ाक उड़ाने के लिए उपयोग किया था)। अर्थात्, यीशु के सलीब पर चढ़ने का कार्य एक समय के लिए कोहराम का कारण बना था और फिर शांत हो गया था। तब से, यीशु के शिष्यों ने, कलीसियाओं में चरवाही करते हुए और सींचते हुए, हर कहीं उसके कार्य को आगे बढ़ाना शुरू कर दिया। उनके कार्य की विषय-वस्तु यह थी: सभी लोगों से पश्चाताप करवाना, उनके पापों को स्वीकार करवाना और बपतिस्मा दिलवाना; सभी प्रेरितों ने यीशु के सलीब पर चढ़ने की अंदर की कहानी को और जो वास्तव में हुआ था उसे फैलाया, हर कोई सहायता करने में समर्थ नहीं हो पाने बल्कि अपने पापों को स्वीकार करने के लिए यीशु के सामने गिर गया, और इसके अलावा प्रेरित सभी जगह उन वचनों को जो यीशु ने बोले थे और व्यवस्थाओं और आज्ञाओं को जो उसने स्थापित की थी, फैला रहे थे। उस क्षण से अनुग्रह के युग में कलीसियाओं का निर्माण होना शुरू हुआ। उस युग में यीशु ने जिस बारे में बात की थी, वह भी मनुष्य के जीवन और स्वर्गिक परमपिता की इच्छा पर केंद्रित था। यह केवल युगों के भिन्न-भिन्न होने की वजह से है कि उनमें से कई उक्तियाँ और प्रथाएँ आज की उक्तियों और प्रथाओं से बहुत भिन्न हैं। किन्तु दोनों का सार एक ही है। दोनों देह में परमेश्वर के आत्मा के कार्य की अपेक्षा कुछ भी अधिक या कम नहीं हैं। उस प्रकार का कार्य और वे वचन आज तक जारी हैं, और यही कारण है कि आज की धार्मिक कलीसियाओं में अभी भी जो कुछ साझा किया जाता है वह उसी प्रकार की चीज है और सर्वथा अपरिवर्तित है। जब यीशु का कार्य संपन्न हुआ, तब यीशु मसीह का सही रास्ता पृथ्वी पर पकड़ बना रहा था, किन्तु परमेश्वर ने अपने कार्य के एक अन्य चरण के लिए योजनाएँ, अंत के दिनों में देहधारण का मामला, शुरू कर दिया। मनुष्य के लिए, परमेश्वर के सलीब पर चढ़ने ने परमेश्वर के देहधारण के कार्य को संपन्न किया, समस्त मानव जाति को छुटकारा दिलाया, और परमेश्वर को अधोलोक की चाबी ज़ब्त करने की अनुमति दी। हर कोई सोचता है कि परमेश्वर का कार्य पूरी तरह से निष्पादित हो चुका है। वास्तविकता में, परमेश्वर के लिए, उसके कार्य का केवल एक छोटा सा हिस्सा ही निष्पादित हुआ है। उसने मानव जाति को केवल छुटकारा दिलाया है; उसने मानवजाति को जीता नहीं है, मनुष्य में शैतान की कुटिलता को बदलने की बात को तो छोड़ो। यही कारण है कि परमेश्वर कहता है, "यद्यपि मेरी देहधारी देह मृत्यु की पीड़ा से गुज़री है, किन्तु वह मेरे देहधारण का पूर्ण लक्ष्य नहीं था। यीशु मेरा प्यारा पुत्र है और उसे मेरे लिए सलीब पर चढ़ाया गया था, किन्तु उसने मेरे कार्य का पूरी तरह से समापन नहीं किया। उसने केवल इसका एक अंश पूरा किया।" इस प्रकार परमेश्वर ने देहधारण के कार्य को जारी रखने के लिए योजनाओं के दूसरे चक्र की शुरुआत की। परमेश्वर का अंतिम अभिप्राय शैतान के हाथों से बचाए गए हर एक को पूर्ण बनाना और प्राप्त करना है, यही वजह है कि परमेश्वर ने देह में आने के लिए फिर से विपत्तियों का जोख़िम लेने की तैयारी की। जिसे "देहधारण" कहा जाता है, वह महिमा नहीं वहन करने का संकेत है (महिमा वहन नहीं करना क्योंकि परमेश्वर का कार्य अभी तक समाप्त नहीं हुआ है), बल्कि प्यारे पुत्र की पहचान में प्रकट होने का संकेत करता है, और संकेत करता है कि वह मसीह है, जिस पर परमेश्वर अच्छी तरह से प्रसन्न है। यही कारण है कि इसे विपत्तियों का जोख़िम लेना कहा जाता है। देह की शक्ति बहुत कम होती है और इसमें बहुत सावधानी बरतनी चाहिए, यह स्वर्ग में पिता के अधिकार से एकदम अलग है[2] और वह अन्य कार्य में शामिल हुए बिना परमपिता परमेश्वर के कार्य और कार्यभार को निष्पादित करता हुआ, केवल देह की सेवकाई को पूरा करता है। वह कार्य के केवल एक हिस्से को पूरा करता है। यही कारण है कि परमेश्वर को पृथ्वी पर आने पर "मसीह" कहा जाता है। यह अंतःस्थापित अर्थ है। ऐसा कहा जाना कि आगमन प्रलोभनों के साथ होता है, इस कारण से है क्योंकि केवल एक कार्य परियोजना निष्पादित की जा रही है। इसके अलावा, परमपिता परमेश्वर उसे केवल "मसीह" और "प्यारा पुत्र" कहता है और उसने उसे समस्त महिमा नहीं दी है, इसका निश्चित रूप से कारण है, क्योंकि देहधारी एक कार्य परियोजना को करने के लिए आता है, स्वर्ग के परमपिता का प्रतिनिधित्व करने के लिए नहीं, बल्कि प्रिय पुत्र की सेवकाई को पूरा करने के लिए आता है। जब प्यारा पुत्र उस समस्त कार्यभार को पूरा कर लेगा जिसे उसने अपने कंधों पर स्वीकार किया था, तो परमपिता उसे परमपिता की पहचान के साथ-साथ पूर्ण महिमा देगा। कोई कह सकता है कि यह स्वर्गिक नियम है क्योंकि वह एक जो देह में आया है और स्वर्ग में परमपिता दो भिन्न-भिन्न परिस्थितियों में हैं, दोनों पवित्रात्मा में एक दूसरे को केवल निहारते हैं, पिता प्रिय पुत्र पर नज़र रख रहा है, किन्तु पुत्र दूर से परमपिता को देखने में असमर्थ है। यह इसलिए है क्योंकि देह का काम बहुत छोटा है और उसकी किसी भी क्षण हत्या कर दिए जाने की संभावना है, कि इस आगमन को बड़े ख़तरों के साथ-साथ होना कहा जाता है। यह परमेश्वर का एक बार पुनः अपने प्रिय पुत्र को त्यागने और उसे शेर के मुँह में रखने के बराबर है। यह जीवन के लिए जोख़िम से भरा है कि परमेश्वर ने उसे ऐसी जगह पर रखा है जहाँ शैतान सबसे अधिक केंद्रित है। इस तरह की बहुत बुरी स्थितियों में भी, परमेश्वर ने अपने प्रिय पुत्र को एक गंदे, पतित स्थान पर रहने वाले लोगों को "पालन-पोषण" करने के लिए उसे सौंप दिया। क्योंकि परमेश्वर के कार्य के पूर्णतः सार्थक होने के लिए यही एकमात्र तरीका है और परमपिता परमेश्वर की सभी इच्छाओं को पूरा करने और मानवजाति के बीच उसके कार्य के अंतिम हिस्से को निष्पादित करने का यही एकमात्र तरीका है। यीशु ने परमपिता परमेश्वर के केवल एक चरण के कार्य को निष्पादित किया है। देहधारी देह की बाधा और निष्पादित किए गए कार्य की भिन्नताओं की वजह से, यीशु स्वयं नहीं जानता था कि देह का एक दूसरा आगमन होगा। इस प्रकार, जिसने भी उसके बारे में ऐतिहासिक विवरण पढ़ा है, उसने कभी भी यीशु को यह भविष्यवाणी करते हुए नहीं पाया है कि परमेश्वर देह में अपने कार्य की संपूर्णता के समापन के लिए स्वयं दूसरा देहधारण करना चाहता है। चूँकि यीशु को इस मामले के बारे में पता भी नहीं था, इसलिए महान नबी और भाष्यकार भी नहीं जानते हैं कि परमेश्वर देह में वापस आना चाहता है, जिसका अर्थ है देह में अपने कार्य के दूसरे हिस्से को करने के लिए फिर से देह में आना। इसलिए, यह कोई नहीं जानता कि परमेश्वर ने काफी पहले स्वयं को देह में छिपा लिया था। यह बात समझ में आती है क्योंकि यीशु के पुनर्जीवित होने और स्वर्ग पहुंचने के बाद ही उसने इस कार्यभार को स्वीकार किया, इसलिये परमेश्वर के दूसरे देहधारण का कोई मूल और कोई आधार नहीं है और यह आधारहीन जल की तरह है, जिसे समझना मुश्किल है। इसके अलावा, अत्यधिक प्रसिद्ध[3] बाइबल में भी इसके उल्लेख मिलना कठिन है। बाइबल के सभी अध्यायों और छंदों में से कोई एक भी वाक्य या वचन इस मामले का उल्लेख नहीं करता है। किन्तु दुनिया में यीशु के आगमन की भविष्यवाणी बहुत पहले ही कर दी गई थी और इसके अलावा यह आगमन पवित्र आत्मा द्वारा गर्भ धारण के माध्यम से था। तथापि, परमेश्वर ने तब भी कहा कि यह जीवन के लिए जोख़िमभरा था। तो आज के बारे में वह क्या कहता है? इसमें कोई आश्चर्य नहीं कि परमेश्वर कहता है कि इस बार के देहधारण में अनुग्रह के युग के दौरान की अपेक्षा हजारों गुना अधिक ख़तरा है। कई जगहों पर, परमेश्वर ने सिनीम के देश में जीतने वालों के एक समूह को प्राप्त करने की भविष्यवाणी की है। दुनिया के पूर्व में जीतने वालों को प्राप्त किया जाता है, इसलिए परमेश्वर के दूसरे देहधारण के अवतरण का स्थान बिना किसी संदेह के, सिनीम का देश है, ठीक वहीं जहाँ बड़ा लाल अजगर कुण्डली मारे पड़ा है। वहाँ परमेश्वर बड़े लाल अजगर के वंशज को प्राप्त करेगा ताकि यह पूर्णतः पराजित और शर्मिंदा हो जाए। परमेश्वर इन गहन रूप से पीड़ित लोगों को जगाना चाहता है, उन्हें पूरी तरह से जगाना और उन्हें कोहरे से बाहर निकालना चाहता है और चाहता है कि वे उस बड़े लाल अजगर को ठुकरा दें। परमेश्वर उन्हें उनके सपने से जगाना, उन्हें बड़े लाल अजगर के सार से अवगत कराना, उनका संपूर्ण हृदय परमेश्वर को दिलवाना, अंधकार की ताक़तों के दमन से बाहर निकालना, दुनिया के पूर्व में खड़े होना, और परमेश्वर की जीत का सबूत बनाना चाहता है। केवल तभी परमेश्वर महिमा को प्राप्त करेगा। मात्र इसी कारण से, परमेश्वर उस कार्य को जो इस्राएल में समाप्त हुआ, उस देश में लाया जहाँ बड़ा लाल अजगर कुण्डली मारे पड़ा है और, प्रस्थान करने के करीब दो हजार वर्ष बाद, वह अनुग्रह के कार्य को जारी रखने के लिए पुनः देह में आ गया है। मनुष्य की खुली आँखों के लिए, परमेश्वर देह में नए कार्य का शुभारंभ कर रहा है। किन्तु परमेश्वर के लिए, केवल कुछ हजार वर्षों के अलगाव के साथ, और केवल कार्य स्थल और कार्य परियोजना में बदलाव के साथ, वह अनुग्रह के युग के कार्य को जारी रख रहा है। यद्यपि देह की छवि जो परमेश्वर ने आज के कार्य में ली है वह यीशु की अपेक्षा सर्वथा भिन्न व्यक्ति है, फिर भी वे एकही सार और मूल को साझा करते हैं, और ये एकही स्रोत से हैं। हो सकता है कि उनमें कई बाहरी अंतर हों, किन्तु उनके कार्य के आंतरिक सत्य पूरी तरह से समान हैं। लेकिन युगों में रात-दिन का अंतर है। परमेश्वर का कार्य अपरिवर्तित कैसे रह सकता है? या कार्य एक-दूसरे को कैसे बाधित कर सकते हैं?
यीशु ने एक यहूदी का रूप-रंग धारण किया, यहूदियों की पोशाक के अनुरूप रहा, और यहूदी भोजन खाते हुए बड़ा हुआ। यह उसका सामान्य मानवीय पहलू है। किन्तु आज का देहधारी एशिया के लोगों का रूप धारण करता है और बड़े लाल अजगर के देश के भोजन पर बड़ा होता है। ये परमेश्वर के देहधारण के लक्ष्य के साथ टकराव नहीं करते हैं। बल्कि, परमेश्वर के देहधारण के वास्तविक महत्व को अधिक पूर्णता से पूरा करते हुए, वे एक दूसरे के अनुपूरक हैं। क्योंकि देहधारी को "मनुष्य का पुत्र" या "मसीह" के रूप में उल्लिखित किया जाता है, इसलिए आज के मसीहके बाह्य-स्वरूप की तुलना यीशु मसीह से नहीं की जा सकती। आख़िरकार, देह को "मनुष्य का पुत्र" कहा जाता है और यह देह की छवि में है। परमेश्वर के कार्य का हर चरण काफी गहरे अर्थ से युक्त है। पवित्र आत्मा द्वारा यीशु का गर्भ धारण करना इस कारण है क्योंकि उसे पापियों को छुटकारा दिलाना था। उसे बिना पाप वाला होना था। किन्तु केवल अंत में जब उसे पापी देह की समानता बनने के लिए बाध्य किया गया और उसने पापियों के पापों को धारण किया, तभी उसने उन्हें श्रापित सलीब से बचाया जिसे परमेश्वर ने लोगों को ताड़ित करने के लिए उपयोग किया था। (सलीब लोगों को श्राप देने और ताड़ित करने के लिए परमेश्वर का औजार है, श्राप देने और ताड़ित करने के उल्लेख विशेष रूप से पापियों को ताड़ना और दंड देने के बारे में है।) लक्ष्य था सभी पापियों से पश्चाताप करवाना और सलीब पर चढ़ने का उपयोग उनसे उनके पापों को स्वीकार करवाना। अर्थात्, समस्त मानव जाति को छुटकारा दिलाने के वास्ते, परमेश्वर ने स्वयं देहधारण किया जिसका गर्भधारण पवित्र आत्मा द्वारा किया गया था और जिसने समस्त मानव जाति के पापों को धारण कर लिया। इसके वर्णन करने का सामान्य तरीका, शैतान से उस समस्त निर्दोष मानवजाति को जिसे इसने कुचल दिया था परमेश्वर को वापस लौटाने की "विनती" करने के लिए, सभी पापियों के बदले एक पवित्र देह अर्पण करना है, यीशु के समकक्ष का शैतान के सामने रखी पाप बली होना है। इस तरह छुटकारे के कार्य के इस चरण को निष्पादित करने के लिए पवित्र आत्मा द्वारा गर्भ धारण की आवश्यकता थी। परमपिता परमेश्वर और शैतान के बीच लड़ाई के दौरान यह एक आवश्यक शर्त, एक "संधि" थी। यही कारण है कि यीशु को शैतान को दिया गया था, और केवल तभी कार्य के इस चरण का समापन हुआ। हालाँकि, आज परमेश्वर का छुटकारे का कार्य पहले से ही अभूतपूर्व शान का है, और शैतान के पास माँगों को करने का कोई कारण नहीं है, इसलिए परमेश्वर के देहधारण के लिए पवित्र आत्मा द्वारा गर्भधारण की आवश्यकता नहीं है, क्योंकि परमेश्वर अंतर्निहित रूप से पवित्र और निर्दोष है। इसलिए परमेश्वर का देहधारण ​​अब की बार अनुग्रह के युग का यीशु नहीं है। किन्तु वह अभी भी परमपिता परमेश्वर की इच्छा के वास्ते है और परमपिता परमेश्वर की इच्छाओं को पूरा करने के वास्ते है। इसे एक अनुचित उक्ति कैसे माना जा सकता है? क्या परमेश्वर के देहधारण को एक नियम-समूह का पालन अवश्य करना चाहिए?
बहुत से लोग, परमेश्वर के देहधारण की किसी भविष्यवाणी को पाना चाहते हुए, साक्ष्य के लिए बाइबल में देखते है। मनुष्य की खंडित सोच कैसे जान सकती है कि परमेश्वर ने बहुत पहले, बाइबिल में "कार्य करना" बंद कर दिया है और उस कार्य को करने के लिए इससे बाहर "छलाँग लगा दी" है जिसकी उसने लंबे समय से योजना बनाई थी किन्तु जिसके बारे में उसने कभी भी मनुष्य को नहीं बताया था? लोगों में समझ का अत्यंत अभाव है। परमेश्वर के स्वभाव का केवल एक अनुभव लेने के बाद ही, वे अकस्मात एक ऊँचे मंच पर जागते हैं, और परमेश्वर के कार्य का निरीक्षण करते हुए, एक उच्च-श्रेणी वाली "व्हीलचेयर" में बैठ जाते हैं, यहाँ तक चले जाते हैं कि आडंबरपूर्ण, असंगत बातें करते हुए ​​परमेश्वर को सिखाना शुरू कर देते हैं। कई "वृद्ध व्यक्ति", पढ़ने का चश्मा लगाए हुए और अपनी दाढ़ी को सहलाते हुए, अपने पीले रंग का "पुराना पोथा" (बाइबल) खोलते हैं जिसे वे जिन्दगीभर पढ़ते आ रहे हैं। वचनों को बुदबुदाते हुए और आँखों में प्रतीत होती चमक के साथ, कभी वह प्रकाशितवाक्य की पुस्तक की ओर और कभी दानिय्येल की पुस्तक की ओर, तो कभी यशायाह की सार्वभौमिक रूप से ज्ञात पुस्तक की ओर मुड़ता है। छोटे-छोटे वचनों से घनीभूत पृष्ठ पर घूरते हुए, वह शांत-भाव से पढ़ता है, उसका मन निरंतर घूम रहा है। अचानक दाढ़ी को सहलाने वाला हाथ रुक जाता है और दाढ़ी को खींचना शुरू कर देता है। यदा कदा दाढ़ी को तोड़े जाने की आवाज किसी को सुनाई देती है। इस तरह का असामान्य व्यवहार देखने वाले को हक्का-बक्का कर देता है। "इतनी ताक़त लगाने की क्या ज़रूरत है? वह किस चीज के बारे में इतना पागल है हो रहा है?" वापस वृद्ध व्यक्ति की ओर, उसकी भौहें अब खड़ी हो गई हैं। जब वृद्ध व्यक्ति अपनी आँखों को फफूँदग्रस्त-दिखाई देने वाले पृष्ठों पर गड़ाए रखता है, तो सफेद भौंहें हंस के पंखों की तरह इस वृद्ध व्यक्ति की पलकों से ठीक दो सेंटीमीटर पर, मानो अकस्मात ही लेकिन फिर भी सटीक रूप से, गिरती हैं। वह क्रियाओं के उपर्युक्त अनुक्रम को कई बार दोहराता है, और फिर अचानक ही उछल पड़ता है और बड़बड़ाना शुरु कर देता है मानो किसी के साथ गपशप[4] कर रहा हो, यद्यपि उसकी आँखों की दृष्टि ने पोथी को नहीं छोड़ा है। अचानक वह वर्तमान पृष्ठ को ढक देता है और "दूसरी दुनिया" की ओर मुड़ जाता है। उसकी हरकतें इतनी जल्दबाज़ीभरी और भयभीत कर देने वाली हैं कि लोगों को लगभग अप्रत्याशित ढंग से चौंका देती हैं। वर्तमान में, जो चूहा अपने बिल से बाहर आ गया था और जिसने उसके मौन के दौरान अभी-अभी "बंधनमुक्त महसूस करना" शुरू किया था, वह उसकी अस्वाभाविक हरकतों से इतना शंकित हो गया कि, फौरन अपने बिल में वापस चला गया। अब वृद्ध व्यक्ति के गतिहीन बाएँ हाथ ने फिर से अपनी दाढ़ी को ऊपर-नीचे सहलाना शुरू कर दिया। वह पुस्तक को मेज पर छोड़कर, आसन से दूर जाता है। अधखुले दरवाजे और खुली हुई खिड़की से, हवा का झोंका लापरवाह ढंग से पुस्तक को बंद करते हुए, फिर खोलते हुए, फिर दोबारा बंद करते हुए और खोलते हुए अंदर आता है। इस दृश्य के बारे में एक अकथनीय निराशा है, और हवा से खड़खड़ाहट करते हुए पुस्तक के पन्नों की आवाज़ को छोड़कर, सब कुछ मौन हो गया प्रतीत होता है। अपनी पीठ के पीछे हाथों को बाँधे हुए, कमरे में चलता है, कभी रुकता है, फिर शुरू हो जाता है, यह दोहराता हुआ प्रतीत होते हुए समय-समय पर अपना सिर हिला रहा है, "हे! परमेश्वर! क्या तू वास्तव में ऐसा करेगा?" बीच-बीच मेंवह सहमति में सिर भी हिलाता है, "हे परमेश्वर! कौन तेरे कार्य की थाह पा सकता है? क्या तेरे पदचिह्नों को खोजना कठिन नहीं है? मुझे विश्वास ​​है कि तू अनावश्यक काम नहीं करता है।" शर्मिंदगी और एक अत्यंत दुःखी अभिव्यक्ति दर्शाते हुए, वृद्ध व्यक्ति की भौंहें सिकुड़ती हैं, उसकी आँखें भिंच कर बंद हो जाती हैं, मानो कि वह धीरे-धीरे विवेचन करना चाहता हो। यह वास्तव में इस "भव्य वृद्ध व्यक्ति" को चुनौती दे रहा है। अपने जीवन के इस बाद के चरण में, उसके पास "दुर्भाग्यवश" यह मामला आ पड़ा है। इस के बारे में क्या किया जा सकता है? मैं भी उलझन में और कुछ पाने में सामर्थ्यहीन हूँ। किसने उसके पुराने पोथी को पीला कर दिया? किसने उसकी समस्त दाढ़ी और भौहें को उसके चेहरे पर अलग-अलग जगहों में सफेद बर्फ की तरह निर्दयी ढंग से विकसित कर दिया? जैसे उसकी दाढ़ी उसकी पृष्ठभूमि का प्रतिनिधित्व करती हो। फिर भी, कौन जानता था कि पुरानी पोथी में परमेश्वर की उपस्थिति की तलाश करते हुए, मनुष्य इस स्थिति तक मूर्खतापूर्ण हो सकता है? पुरानी पोथी में कागज के कितने पन्ने हो सकते हैं? क्या इसमें वास्तव में परमेश्वर के सभी कर्मों को अभिलिखित किया जा सकता है? इस बात की गारंटी देने का साहस कौन करता है? मनुष्य वास्तव में परमेश्वर के प्रकटन की तलाश करता है और वचनों का अत्यधिक पदभंजन करके[5] परमेश्वर की इच्छा को पूरा करने का प्रयास करता है। क्या इस तरह से जीवन प्रवेश करने का प्रयास करना उतना आसान है जितना यह प्रतीत होता है? क्या यह मूर्खतापूर्ण, ग़लत तर्क नहीं है? क्या तुम्हें यह हास्यास्पद नहीं लगता है?
फुटनोट:
1. "अनिश्चित" संकेत करता है कि लोगों को परमेश्वर के कार्य में स्पष्ट अंतर्दृष्टि नहीं
है।
2. "अल्प शक्ति का है और उसे बहुत सावधानी का प्रयोग करना चाहिए" संकेत करता
है कि देह की कठिनाइयाँ बहुत अधिक हैं, और किया गया कार्य अत्यंत सीमित है।
3. "अत्यधिक प्रसिद्ध" उपहासपूर्ण ढंग से कहा गया है। यह इस बात का ज़िक्र करता
है कि कैसे धार्मिक भ्रांतियों में पड़े कई विशेषज्ञ पीली पड़ गई "पुरानी पोथी" की परमेश्वर के रूप में पूजा करते हैं।
4. "गपशप" लोगों के बदसूरत चेहरे का रूपक है, जब वे परमेश्वर के कार्य में शोध करते
हैं।
5. "वचनों का अत्यधिक पदभंजन करके" का उपयोग भ्रांतियों में पड़े विशेषज्ञों का उपहास
उड़ाने के लिए किया गया है, जो वचनों की बाल की खाल निकालते हैं किन्तु सत्य की तलाश नहीं करते हैं या पवित्र आत्मा के कार्य को नहीं जानते हैं।

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