चमकती पूर्वी बिजली, सर्वशक्तिमान परमेश्वर प्रभु यीशु का दूसरा आगमन है। परमेश्वर की भेड़ परमेश्वर की आवाज़ सुनती है। जब तक आप सर्वशक्तिमान परमेश्वर के वचनों को पढ़ते हैं, आप देखेंगे कि परमेश्वर प्रकट हो गए हैं। हम सभी सत्य-के-साधकों का यहाँ आने और देखने के लिए स्वागत करते हैं।

菜单

घर

सर्वशक्तिमान परमेश्वर की कलीसिया की मूलभूत मान्यताएँ

(1)  सर्वशक्तिमान परमेश्वर की  कलीसिया  के सिद्धांत ईसाई धर्म के सिद्धांत बाइबल से उत्पन्न होते हैं, और  सर्वशक्तिमान परमेश्वर  की क...

शुक्रवार, 1 मई 2020

सर्वशक्तिमान परमेश्वर के वचन "परमेश्वर के स्वभाव को समझना अति महत्वपूर्ण है" (अंश 1)


सर्वशक्तिमान परमेश्वर के वचन "परमेश्वर के स्वभाव को समझना अति महत्वपूर्ण है" (अंश 1)

सर्वशक्तिमान परमेश्वर कहते हैं, "परमेश्वर का स्वभाव एक ऐसा विषय है जो बहुत गूढ़ दिखाई देता है और जिसे आसानी से स्वीकार नहीं किया जाता, क्योंकि उसका स्वभाव मनुष्यों के व्यक्तित्व के समान नहीं है। परमेश्वर के पास भी आनन्द, क्रोध, दुखः, और खुशी की भावनाएँ हैं, परन्तु ये भी भावनाएँ उन मनुष्यों की भावनाओं से जुदा हैं।
परमेश्वर का अपना अस्तित्व और स्वत्वबोध है। जो कुछ वह प्रकट और उजागर करता है वह उसके सार और उसकी पहचान का प्रस्तुतिकरण है। उसकी हस्ती, उसका स्वत्वबोध, साथ ही उसके सार और पहचान को किसी मनुष्य के द्वारा बदला नहीं जा सकता है। उसका स्वभाव मानव जाति के प्रति उसके प्रेम, मानव जाति के लिए उसकी दिलासा, मानव जाति के प्रति नफरत, और उस से भी बढ़कर, मानव जाति की सम्पूर्ण समझ के चारों ओर घूमता रहता है। फिर भी, मुनष्य का व्यक्तित्व आशावादी, जीवन्त, या कठोर हो सकता है। परमेश्वर का स्वभाव सब बातों में जीवित प्राणियों के शासक, और सारी सृष्टि के प्रभु से सम्बन्ध रखता है। उसका स्वभाव आदर, सामर्थ, कुलीनता, महानता, और सब से बढ़कर, सर्विच्चता का प्रतिनिधित्व करता है। उसका स्वभाव अधिकार और उन सब का प्रतीक है जो धर्मी, सुन्दर, और अच्छा है। इस के अतिरिक्त, यह इस का भी प्रतीक है कि परमेश्वर को अंधकार और शत्रु के बल के द्वारा दबाया या उस पर आक्रमण नहीं किया जा सकता है, साथ ही इस बात का प्रतीक भी है कि उसे किसी भी सृजे गए प्राणी के द्वारा ठेस नहीं पहुंचाई जा सकती है (और उसे ऐसा करने की अनुमति नहीं है)। उसका स्वभाव सब से ऊँची सामर्थ का प्रतीक है। कोई भी मनष्य उसके कार्य और उसके स्वभाव को अस्थिर नहीं कर सकता है। परन्तु मनुष्य का व्यक्तित्व पशुओं से थोड़ा बेहतर होने के चिन्ह से बढ़कर कुछ भी नहीं है। मनुष्य के पास अपने आप में और स्वयं में कोई अधिकार नहीं है, कोई स्वयत्त्तता नहीं है, और स्वयं को श्रेष्ठ करने की कोई योग्यता भी नहीं है, वो तो बस एक तत्व है जो किसी व्यक्ति की चालाकी, घटना, या वस्तु के द्वारा भयातुर होकर नतमस्तक हो जाता है। परमेश्वर का आनन्द धार्मिकता और ज्योति की उपस्थिति और अभ्युदय से है; अँधकार और बुराई के विनाश से है। वह आनन्दित होता है क्योंकि वह मानव जाति के लिए ज्योति और अच्छा जीवन ले कर आया है; उसका आनन्द धार्मिकता का है, हर चीज़ के सकारात्मक होने का एक प्रतीक, और सब से बढ़कर कल्याण का प्रतीक। परमेश्वर का क्रोध अन्याय की मौजूदगी और उस अस्थिरता के कारण है जो इससे पैदा होती है जो उसकी मानव जाति को हानि पहुँचा रही है; बुराई और अँधकार की उपस्थिति के कारण, और ऐसी चीज़ों की उपस्थिति जो सत्य को बाहर धकेल देती है, और उस से भी बढ़कर ऐसी चीज़ों की उपस्थिति के कारण जो उनका विरोध करती हैं जो भला और सुन्दर है। उसका क्रोध एक चिन्ह है कि वे सभी चीज़ें जो नकारात्मक हैं आगे से अस्तित्व में न रहें, और इसके अतिरिक्त यह पवित्रता का प्रतीक है। उसका दुखः मानव जाति के कारण है, जिसके लिए उस ने आशा की थी परन्तु वह अंधकार में गिर गई, क्योंकि जो कार्य वह मनष्यों के लिए करता है मनुष्य वह उसकी अपेक्षाओं पर खरा नहीं उतरता, और क्योंकि वह जिस मानव जाति से प्रेम करता है वह ज्योति में पूरी तरह जीवन नहीं जी पाती। वह अपनी भोलीभाली मानव जाति के लिए, ईमानदार किन्तु अनजान मनुष्य के लिए, और अच्छे और अनिश्चित भाव वाले मनुष्य के लिए दुखः की अनुभूति करता है। उसका दुखः उसकी भलाई और उसकी करूणा का चिन्ह है, और सुन्दरता और उदारता का चिन्ह है। उसकी प्रसन्नता, वास्तव में, अपने शत्रुओं को हराने और मनुष्यों के भले विश्वास को प्राप्त करने से आती है। इसके अतिरिक्त, सभी शत्रु ताकतों को भगाने और हराने से और मनुष्यों के द्वारा भले और शांतिपूर्ण जीवन को प्राप्त करने से आती है। परमेश्वर की प्रसन्नता, मनुष्य के आनंद के समान नहीं है; उसके बजाए, यह मनोहर फलों को प्राप्त करने का एहसास है, एक एहसास जो आनंद से बढ़कर है। उसकी प्रसन्नता इस बात का चिन्ह है कि मानव जाति दुखः की जंज़ीरों को तोड़कर आज़ाद होकर ज्योति के संसार में प्रवेश करती है। दूसरे रूप में, मानव जाति की भावनाएँ सिर्फ स्वयं के सारे स्वार्थों के उद्देश्य के तहत अस्तित्व में हैं, धार्मिकता, ज्योति, या जो सुन्दर है उसके लिए नहीं, और स्वर्ग के अनुग्रह के लिए तो बिल्कुल नहीं। मानव जाति की भावनाएँ स्वार्थी हैं और अँधकार के संसार से वास्ता रखती हैं। वे इच्छा के लिए नहीं हैं, परमेश्वर की योजना के लिए तो बिल्कुल नहीं। इसलिए मनुष्य और परमेश्वर को एक ही साँस मे बोला नहीं जा सकता है। परमेश्वर सर्वदा सर्वोच्च है और हमेशा आदरणीय है, जबकि मनुष्य सर्वदा तुच्छ और हमेशा से निकम्मा है। यह इसलिए है क्योंकि परमेश्वर हमेशा बलिदान करता रहता है और मनुष्यों के लिए अपने आप को दे देता है; जबकि, मनुष्य हमेशा लेता है और सिर्फ अपने आप के लिए ही परिश्रम करता है। परमेश्वर सदा मानव जाति के अस्तित्व के लिए परिश्रम करता रहता है, फिर भी मनुष्य ज्योति और धार्मिकता में कभी भी कोई योगदान नहीं देता है। भले ही मनुष्य कुछ समय के लिए परिश्रम करे, लेकिन वह कमज़ोर होता है और हल्के से झटके का भी सामना नहीं सकता है, क्योंकि मनुष्य का परिश्रम केवल उसी के लिए होता है दूसरों के लिए नहीं। मनुष्य हमेशा स्वार्थी होता है, जबकि परमेश्वर सर्वदा स्वार्थ विहीन होता है। परमेश्वर उन सब का स्रोत है जो धर्मी, अच्छा, और सुन्दर है, जबकि मनुष्य सब प्रकार की गन्दगी और बुराई का वाहक और फैलाने वाला है। परमेश्वर कभी भी अपनी धार्मिकता और सुन्दरता के सार-तत्व को नहीं पलटेगा, जबकि मनुष्य किसी भी समय धार्मिकता से विश्वासघात कर सकता है और परमेश्वर से दूर जा सकता है।"

— "परमेश्वर के स्वभाव को समझना अति महत्वपूर्ण है" से उद्धृत

परमेश्वर का वचन इन हिंदी | मानव जाति के भाग्य के प्रति |  परमेश्वर की प्रभुता को समझें
हम कैसे एक अच्छा भाग्य हासिल कर सकते हैं और भगवान के द्वारा की बचाए जा सकते हैं?ईश्वर के ये शब्द हमें बताते हैं कि हम कैसे परमेश्वर की महीमा करें और धन्य हों।

कोई टिप्पणी नहीं:

एक टिप्पणी भेजें

Popular Posts