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सर्वशक्तिमान परमेश्वर की कलीसिया की मूलभूत मान्यताएँ

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मंगलवार, 15 अक्तूबर 2019

खोज के पीछे छुपे रहस्य

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ली ली डेझोउ शहर, शैंडॉन्ग प्रांत
कुछ समय पहले, मुझे मेरे भाई-बहनों द्वारा मध्य स्तर के अगुआ के तौर पर चुना गया। एक दिन, जब मैं अपने सह-कर्मियों के साथ इकट्ठा थी, तो मैं खुद में सोचने के अलावा और कुछ नहीं कर सकी: मुझे जरूर अच्छा करना चाहिए। अगर मैंने ख़राब ढंग से किया, तो मेरे अगुआ और सह-कर्मी मुझे कैसे देखेंगे? परिणामस्वरूप, जब हम किसी विषय पर एक साथ चर्चा करते थे, तो अगर उस विषय की मुझे मात्र थोड़ी सी भी समझ होती थी, तो मैं सबसे पहले कुछ कहने की कोशिश करती थी, हालाँकि, जब मुझे हाथ के विषय पर कोई समझ नहीं होती थी और मैं कुछ कहने में असमर्थ होती थी, तो मैं खुद में चिंतित हुआ पाती थी। सभा के उन कुछ दिनों के दौरान, मैं थकी हुई और खासतौर पर चिंतित महसूस करती थी, मानो कि मैं किसी युद्ध के अखाड़े में हूँ। बाद में, मैंने जो प्रकट किया था मैंने उस पर चिंतन किया और मैंने जाना कि इस प्रकार की परिस्थिति केवल मेरे स्वयं के मिथ्याभिमान की वजह से थी और कोई वास्तविक समस्या नहीं थी। फिर एक दिन, अगुआओं ने मुझे एक सभा की सूचना दी, मैं यह जानकर खास तौर पर उत्साहित महसूस करती थी कि उच्च स्तर के अगुआ इस सभा को आयोजित करेंगे, और मैंने सोचा: ऐसा लगता है कि मैं प्रशिक्षित होने जा रही हूँ, अगर मैं अच्छा करती हूँ और अच्छा प्रभाव छोड़ती हूँ तो हो सकता है कि मुझे पदोन्नत कर दिया जाएगा, और जब मेरी खुद की जिम्मेदारियाँ बढ़ जाएँगी, तब न केवल मेरे सहकर्मी बल्कि मेरे भाई-बहन भी मेरी सराहना करेंगे। इसलिए, उस सभा में, मैंने इस डर से काफी झिझकते हुए बोला कि कोई भी अनुपयुक्त वचन से मेरे अगुओं पर ख़राब प्रभाव डालेगा। जब वह सभा अंतत: ख़त्म हो गई, तो भले ही मैं उससे पहले के दिनों में चिंतित और थकी हुई थी, लेकिन तब मैं काफी प्रफुल्लित महसूस कर रही थी, और मुझे लगता था कि भविष्य बहुत से संकेतों को धारण किए हुए हैं। उस समय से आगे, मेरी "खोज" की ताक़त बहुत बढ़ गई थी।
एक दिन, एक उपदेश से निम्न अंश पढ़ा: "अतीत में लोग अपने आप को जानने का प्रयास करते थे, वे केवल इस बात पर ध्यान देते थे कि वे कौन से अपराध करते हैं या वे कौन सी भ्रष्टताओं को प्रकट करते हैं, किन्तु यह देखने के लिए अपने हर वचन और कृत्य का विश्लेषण नजरअंदाज कर देते थे कि कौन से शैतान के भ्रष्ट स्वभाव है, कौन से बड़े लाल अजगर के ज़हर हैं, कौन सी लोगों की कल्पनाएँ और धारणाएँ हैं, और कौन से झूठ और भटकाव हैं। इन बातों के अलावा, लोगों को दिल के अंदर गहराई में छुपी चीज़ों का पकड़ने, और सत्य का उपयोग करके इन चीज़ों की वास्तविक प्रकृति को जानने हेतु परमेश्वर के सामने आने के लिए, अपनी स्वयं की प्रवृत्तियों और आंतरिक अवस्थाओं का विश्लेषण भी अवश्य करना चाहिए। केवल तभी कोई व्यक्ति अपनी स्वयं की भ्रष्टता की वास्तविकता को जान सकता है और अपने भ्रष्ट सार की समस्या को देख सकता है। केवल इसलिए क्योंकि किसी व्यक्ति ने कोई बड़े अपराध नहीं किये हैं इसका अर्थ यह नहीं है कि उसके हृदय में गहरी कोई समस्या नहीं है। किसी व्यक्ति की प्रकृति में कुछ छुपी हुई दुर्भावना, स्वभाव, और समस्याओं को हल करना और भी ज्यादा कठिन होता है। छोटी-छोटी बीमारियाँ लोगों को मार नहीं सकती हैं; केवल बड़ी बीमारियाँ जीवन ले लेती हैं" (ऊपर से संगति)। इसे पढ़कर, मैं पिछली दो सभाओं में अपनी खुद की मनोवृत्ति के बारे में सोचने के अलावा और कुछ नहीं कर सकती थी, और मैं मन में सोचती थी कि: किस प्रकृति ने इस पर प्रभुत्व जमाया हुआ है? उस समय, मैंने अपनी खुद की स्थिति के लिए अनुरूपी सत्य को खोजना शुरू किया ताकि मैं उसका परीक्षण और विश्लेषण कर सकूँ।
परमेश्वर के मार्गदर्शन के तहत, मैंने परमेश्वर का यह वचन देखा: "कुछ लोग विशेष रूप से पौलुस को आदर्श मानते हैं: उन्हें बाहर जा कर भाषण देना पसंद होता है, उन्हें आपस में मिलना पसंद होता है; उन्हें अच्छा लगता है जब लोग उन्हें सुनते हैं, उनकी आराधना करते हैं और उन्हें घेरे रहते हैं। उन्हें पसंद होता है कि दूसरों के मन में उनकी एक हैसियत हो, और जब दूसरे उनकी छवि को महत्व देते हैं, तो वे उसकी सराहना करते हैं। आइए हम इन व्यवहारों से उनकी प्रकृति का विश्लेषण करें: इस तरह के व्यवहारों वाले लोगों की किस प्रकार की प्रकृति होती है? यदि वे वास्तव में इस तरह से व्यवहार करते हैं, तो यह इस बात को दर्शाने के लिए पर्याप्त है कि वे अहंकारी और दंभी हैं। वे परमेश्वर की आराधना तो बिल्कुल नहीं करते हैं; वे ऊँची हैसियत की तलाश में रहते हैं और दूसरों पर अधिकार रखना चाहते हैं, उन पर अपना कब्ज़ा रखना चाहते हैं, उनके दिमाग में एक हैसियत प्राप्त करना चाहते हैं। उनकी प्रकृतियों के पहलू जो अलग से दिखाई देते हैं, वे हैं उनका अहंकार और दंभ, परेमश्वर की आराधना करने की अनिच्छा, और दूसरों के द्वारा आराधना किए जाने की इच्छा। यह शैतान की एक विशेष छवि है। ऐसे व्यवहारों से तुम उनकी प्रकृतियों को स्पष्ट रूप से देख सकते हो" ("मसीह की बातचीतों के अभिलेख" में "मनुष्य का स्वभाव कैसे जानें")। मैं परमेश्वर के हर वचन को समझने की कोशिश करती थी, और अपने खुद के विचारों, वचनों और कर्मों से उनकी तुलना करती थी, तभी मैं सत्य को देखती थी। सभा में मेरे खासतौर पर घबराए हुए और नियंत्रण के अधीन होने का कारण क्या दूसरों का मेरी ओर ध्यान या मुझे महत्व देना नहीं था? क्या यह केवल उच्च हैसियत पाने और अधिक लोगों से अपनी प्रशंसा करवाने के लिए नहीं था? जब मुझे लगता था कि अगुए मेरे बारे में अच्छा सोचते हैं, तो मैं सोचती थी कि मेरा खुद का भविष्य संभावना से भरा हुआ है, तथा मैं और भी अधिक आत्मसंतुष्ट और ऊर्जावान महसूस करती थी। उससे मैंने अपने खुद के अहंकार की प्रकृति को देखा, मैं हमेशा ऊँचा रहना, लोगों पर शासन करना, लोगों के दिल में स्थान पाना चाहती थी, मैंने पौलुस की ही तरह कोशिश की थी। सारभूत रूप से, मेरी खोज परमेश्वर की आराधना या उसे संतुष्ट करना नहीं, बल्कि अपनी खुद की इच्छाओं और महत्वाकांक्षाओं को संतुष्ट करने के लिए परमेश्वर द्वारा दी गई हैसियत का उपयोग करना थी। क्या यह बिल्कुल महादूत के अपने अहंकार को प्रकट करने की तरह नहीं था? क्या मैंने मसीह के शत्रु का मार्ग नहीं ले लिया था?
पूर्व में, जब मैं सभाओं में शामिल होती थी तो मैं आसानी से विवश हो जाती थी, लेकिन मैं बस सोचती थी कि मैं बहुत ज्यादा घमंडी थी, और मैं पीछे की चीज़ों का विश्लेषण नहीं करती थी। अब विश्लेषण करने के बाद, मैंने जाना कि यह एक अहंकारी और दंभी प्रकृति से प्रेरित था, जिसके पीछे एक व्यक्तिगत षड्यंत्र और अहंकारी महत्वाकांक्षाएँ थी। मुझ पर अपना खुद का अहंकार हावी था, और मैं परमेश्वर के विरुद्ध काफी कुछ करती थी: अपने कर्तव्य को पूरा करते हुए दौड़-धूप करती थी और खुद को व्यक्त करने के लिए बेकरार रहती थी ताकि उच्च हैसियत हासिल करूँ और अपने भाई-बहनों की सराहना पाऊँ; जब मैं अपने भाई-बहनों के समक्ष खुद को प्रकट करती थी, तो मैं कभी भी अपने अंदर गहराई में घटित चीज़ों का वाकई विश्लेषण नहीं करती थी, बल्कि मैं खुद की प्रशंसा करने और अपनी खुद की गवाही देने के लिए अपने बाहरी कार्यों के बारे में बात करती थी; जब मैं परमेश्वर के वचनों को खाती और पीती थी, तो यह मेरी समझ को बढ़ाने या सत्य ग्रहण करने के लिए नहीं होता था, बल्कि अपने भाई-बहनों के समक्ष दिखावा करने के लिए होता था। ...जब मैं इस बारे में सोचती तो मैं शर्मिंदगी महसूस करती थी: मैं परमेश्वर की सेवा नहीं कर रही थी, मैं पूरी तरह से अपने खुद के मामलों में लगी हुई थी और परमेश्वर का विरोध करती थी। अब, अगर परमेश्वर ने मुझे अपनी खुद की अहंकारी प्रकृति को समझने और मेरे उत्साही अनुसरण के पीछे के उद्देश्य और अशुद्धता को देखने नहीं दिया होता, यह देखने नहीं दिया होता कि मैं गलत पथ पर हूँ, तो मैंने अपने अहंकारी तरीकों को जारी रखा होता, और संभवत: उन बुरे कामों को करती रहती जो परमेश्वर का विरोध और उसके साथ विश्वासघात करते हैं और इसलिए परमेश्वर के दंड के अधीन की जाती।
मैं समयोचित प्रबुद्धता और मार्गदर्शन के लिए परमेश्वर का धन्यवाद करती हूँ जिसकी वजह से मैंने अपनी खुद की अहंकारी प्रकृति के सार को जाना, और मुझे यह देखने की अनुमति मिली कि मैं मसीह विरोध के मार्ग पर जा रही थी; इस अनुभव ने मुझे विशेष रूप से यह आभास कराया है कि, अपनी खुद की प्रकृति को बेहतर तरीके से समझने और अपने स्वभाव में बदलाव लाने के लिए, अपने अनुभव में न केवल मुझे अपने खुद के प्रकाशनों और अपराधों को पहचानने में ध्यान देना चाहिए बल्कि सत्य से भी उनकी तुलना करनी चाहिए और गहराई में छुपी चीजों का विश्लेषण भी करना चाहिए। भविष्य में, मैं अपने खुद के मन की स्थिति और आंतरिक परिस्थिति का ध्यानपूर्वक विश्लेषण करना चाहूँगी, अपने खुद के भ्रष्ट सार को समझना, परमेश्वर के उद्धार के सही मार्ग को खोजना और उस पर आगे बढ़ना चाहूँगी।

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