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सर्वशक्तिमान परमेश्वर की कलीसिया की मूलभूत मान्यताएँ

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बुधवार, 23 जनवरी 2019

5. परमेश्वर में सच्चा विश्वास वास्तव में क्या है? किसी को परमेश्वर में कैसे विश्वास करना चाहिए कि वह परमेश्वर से प्रशंसा प्राप्त कर सके?

परमेश्वर की गवाही देते बीस सत्य, परमेश्वर को जानना, बाइबल, मसीह के कथन

5. परमेश्वर में सच्चा विश्वास वास्तव में क्या है किसी को परमेश्वर में कैसे विश्वास करना चाहिए कि वह परमेश्वर से प्रशंसा प्राप्त कर सके

परमेश्वर के प्रासंगिक वचन:
यद्यपि बहुत से लोग परमेश्वर पर विश्वास करते हैं, किंतु बहुत कम लोग समझते हैं कि परमेश्वर पर विश्वास करने का अर्थ क्या है, और परमेश्वर के मन के अनुरूप बनने के लिये उन्हें क्या करना चाहिए। ऐसा इसलिए है क्योंकि यद्यपि लोग "परमेश्वर" शब्द और "परमेश्वर का कार्य" जैसे वाक्यांश से परिचित हैं, किंतु वे परमेश्वर को नहीं जानते हैं, और उससे भी कम वे उसके कार्य को जानते हैं। इसमें कोई आश्चर्य नहीं कि तब वे सभी जो परमेश्वर को नहीं जानते हैं, वे दुविधायुक्त विश्वास रखते हैं। लोग परमेश्वर पर विश्वास करने को गंभीरता से नहीं लेते हैं, क्योंकि परमेश्वर पर विश्वास करना उनके लिये अत्यधिक अनजाना और अजीब है।इस प्रकार, वे परमेश्वर की माँग से कम पड़ते हैं। दूसरे शब्दों में, यदि लोग परमेश्वर को नहीं जानते हैं, तो वे उसके कार्य को भी नहीं जानते हैं, तब वे परमेश्वर के इस्तेमाल के योग्य नहीं हैं, और उससे भी कम यह कि वे परमेश्वर की इच्छा को पूरा नहीं कर सकते हैं। "परमेश्वर पर विश्वास" का अर्थ, यह विश्वास करना है कि परमेश्वर है; यह परमेश्वर पर विश्वास की सरलतम अवधारणा है। इससे बढ़कर यह बात है कि परमेश्वर है, यह मानना परमेश्वर पर सचमुच विश्वास करना नहीं है; बल्कि यह मजबूत धार्मिक प्रभाव के साथ एक प्रकार का सरल विश्वास है। परमेश्वर पर सच्चे विश्वास का अर्थ इस विश्वास के आधार पर परमेश्वर के वचनों और कामों का अनुभव करना है कि परमेश्वर सब वस्तुओं पर संप्रभुता रखता है। इस तरह से तुम अपने भ्रष्ट स्वभाव से मुक्त हो जाओगे, परमेश्वर की इच्छा को पूरा करोगे और परमेश्वर को जान जाओगे। केवल इस प्रकार की यात्रा के माध्यम से ही तुम्हें परमेश्वर पर विश्वास करने वाला कहा जा सकता है। मगर लोग परमेश्वर पर विश्वास को अक्सर बहुत सरल और तुच्छ मानते हैं। ऐसे लोगों का विश्वास अर्थहीन है और कभी भी परमेश्वर का अनुमोदन नहीं पा सकता है, क्योंकि वे गलत पथ पर चलते हैं। आज, अभी भी कुछ ऐसे लोग हैं जो अक्षरों में, खोखले सिद्धान्तों में परमेश्वर पर विश्वास करते हैं। वे इस बात से अनजान हैं कि परमेश्वर पर उनके विश्वास में कोई सार नहीं है, और कि वे परमेश्वर का अनुमोदन पाने में असमर्थ हैं, और तब भी वे परमेश्वर से शांति और पर्याप्त अनुग्रह के लिये प्रार्थना करते हैं। हमें रुक कर स्वयं से प्रश्न करना चाहिए: क्या परमेश्वर पर विश्वास करना पृथ्वी पर वास्तव में सबसे अधिक आसान बात है? क्या परमेश्वर पर विश्वास करने का अर्थ, परमेश्वर से अधिक अनुग्रह पाने की अपेक्षा कुछ नहीं है? क्या जो लोग परमेश्वर पर विश्वास करते हैं पर उसे नहीं जानते हैं; और जो उस पर विश्वास तो करते हैं पर उसका विरोध करते हैं, सचमुच उसकी इच्छा को पूरा करते हैं?
"वचन देह में प्रकट होता है" से "प्रस्तावना" से
आज, परमेश्वर में वास्तविक विश्वास क्या है? यह परमेश्वर के वचन को अपने जीवन की वास्तविकता के रूप में स्वीकार करना, और परमेश्वर का सच्चा प्यार प्राप्त करने के लिए परमेश्वर के वचन से परमेश्वर को जानना है। स्पष्ट करने के लिए: यह परमेश्वर में विश्वास है जिसकी वजह से तुम परमरेश्वर की आज्ञा का पालन कर सकते हो, उससे प्रेम कर सकते हो, और उस कर्तव्य को कर सकते हो जो एक परमेश्वर के प्राणी द्वारा की जानी चाहिए। यही परमेश्वर पर विश्वास करने का लक्ष्य है। तुम्हें परमेश्वर के प्रेम का ज्ञान अवश्य प्राप्त करना चाहिए है, या यह ज्ञान अवश्य प्राप्त करना चाहिए कि परमेश्वर कितने आदर के योग्य हैं, कैसे अपने सृजन किए गए प्राणियों में परमेश्वर उद्धार का कार्य करता है और उन्हें पूर्ण बनाता है-यह वह न्यूनतम है जो तुम्हें परमेश्वर पर विश्वास में धारण करना चाहिए। परमेश्वर पर विश्वास मुख्यतः देह के जीवन से परमेश्वर से प्रेम करने वाले जीवन में बदलना है, प्राकृतिकता के भीतर जीवन से परमेश्वर के अस्तित्व के भीतर जीवन में बदलना है, यह शैतान के अधिकार क्षेत्र से बाहर आना और परमेश्वर की देखभाल और सुरक्षा में जीवन जीना है, यह परमेश्वर की आज्ञाकारिता को, और न कि देह की आज्ञाकारिता को, प्राप्त करने में समर्थ होना है, यह परमेश्वर को तुम्हारा संपूर्ण हृदय प्राप्त करने की अनुमति देना है, परमेश्वर को तुम्हें पूर्ण बनाने और तुम्हें भ्रष्ट शैतानिक स्वभाव से मुक्त करने की अनुमति देना है। परमेश्वर में विश्वास मुख्यतः इस वजह से है ताकि परमेश्वर की सामर्थ्य और महिमा तुममें प्रकट हो सके, ताकि तुम परमेश्वर की इच्छा को पूर्ण कर सको, और परमेश्वर की योजना को संपन्न कर सको, और शैतान के सामने परमेश्वर की गवाही दे सको। परमेश्वर पर विश्वास संकेतों और चमत्कारों को देखने के उद्देश्य से नहीं होना चाहिए, न ही यह तुम्हारी व्यक्तिगत देह के वास्ते होना चाहिए। यह परमेश्वर को जानने की तलाश के लिए, और परमेश्वर की आज्ञा का पालन करने, और पतरस के समान, मृत्यु तक परमेश्वर का आज्ञापालन करने में सक्षम होने के लिए, होना चाहिए। यही वह सब है जो मुख्यतः प्राप्त करने के लिए है। परमेश्वर के वचन से खाना और पीना परमेश्वर को जानने के उद्देश्य से और परमेश्वर को संतुष्ट करने के उद्देश्य से है। परमेश्वर के वचन को खाना और पीना तुम्हें परमेश्वर का और अधिक ज्ञान देता है, केवल उसके बाद ही तुम उसका आज्ञा पालन कर सकते हो। केवल यदि तुम परमेश्वर को जानते हो तभी तुम उससे प्रेम कर सकते हैं, और इस लक्ष्य को प्राप्त करना ही वह एकमात्र लक्ष्य है जो परमेश्वर के प्रति अपने विश्वास में मनुष्य को रखना चाहिए। यदि, परमेश्वर पर तुम्हारे विश्वास में, तुम सदैव संकेतों और चमत्कारों की देखने का प्रयास करते रहते हो, तब परमेश्वर पर तुम्हारे विश्वास का यह दृष्टिकोण गलत है। परमेश्वर पर विश्वास मुख्य रूप में परमेश्वर के वचन को जीवन की वास्तविकता के रूप में स्वीकार करना है। केवल उसके मुख से निकले वचनों को अभ्यास में लाना और उन्हें अपने स्वयं के भीतर पूरा करना, परमेश्वर के लक्ष्य की प्राप्ति है। परमेश्वर पर विश्वास करने में, मनुष्य को परमेश्वर द्वारा पूर्ण किए जाने, परमेश्वर के प्रति समर्पण करने में समर्थ होने की, और परमेश्वर के प्रति संपूर्ण आज्ञाकारिता की तलाश करनी चाहिए। यदि तुम बिना कोई शिकायत किए परमेश्वर का आज्ञापालन कर सकते हो, परमेश्वर की अभिलाषाओं का विचार कर सकते हो, पतरस के समान हैसियत प्राप्त कर सकते हो, और परमेश्वर द्वारा कही गई पतरस की शैली को धारण कर सकते हो, तो यह तब होगा जब तुमने परमेश्वर पर विश्वास में सफलता प्राप्त कर ली है, और यह इस बात की द्योतक होगी कि तुम परमेश्वर द्वारा जीत लिए गए हो।
"वचन देह में प्रकट होता है" से "परमेश्वर के वचन के द्वारा सब कुछ प्राप्त हो जाता है" से
क्योंकि तुम परमेश्वर पर विश्वास करते हो, तुम्हें उसके वचन को खाना-पीना चाहिये, उसका अनुभव करना चाहिये, और उसे जीना चाहिये। केवल यही परमेश्वर पर विश्वास करना है! यदि तुम कहते हो कि तुम परमेश्वर पर विश्वास करते हो, परंतु उसके किसी वचन को बोल नहीं सकते, या उन पर अमल नहीं कर सकते, तो यह नहीं माना जा सकता कि तुम परमेश्वर में विश्वास करते हो। ऐसा करना भूख शांत करने के लिये रोटी की खोज करने जैसा है। केवल छोटी-छोटी बातों की गवाही, अनुपयोगी मसले, और सतही मुद्दों के बारे में बातें करना, और उनमें लेशमात्र भी वास्तविकता न होना,परमेश्वर पर विश्वास नहीं है। उसी तरह,[क] तुमने परमेश्वर पर विश्वास करने के सही तरीके को नहीं समझा है। तुम्हें परमेश्वर के वचनों को क्यों अधिक खाना-पीना चाहिये? क्या यह विश्वास माना जायेगा यदि तुम परमेश्वर के वचनों को खाते पीते नहीं, और केवल स्वर्ग पर उठाये जाने की खोज में हो? परमेश्वर पर विश्वास करने वाले का पहला कदम क्या है? परमेश्वर किस मार्ग से मनुष्यों को पूर्ण बनाता है? क्या परमेश्वर के वचन को बिना खाए-पीए तुम पूर्ण बनाए जा सकते हो? क्या परमेश्वर के वचन को बिना अपनी वास्तविकता बनाये, तुम परमेश्वर के राज्य के व्यक्ति माने जा सकते हो? परमेश्वर पर विश्वास करना वास्तव में क्या है? परमेश्वर पर विश्वास करने वालों का कम से कम बाहरी तौर पर आचरण अच्छा होना चाहिये, और सबसे महत्वपूर्ण बात परमेश्वर का वचन रखना है। तब चाहे कुछ भी हो तुम उसके वचन से भी दूर नहीं जा सकते। परमेश्वर के प्रति तुम्हारा ज्ञान और उसकी इच्छा को पूरा करना, सब उसके वचन के द्वारा हासिल किया जाता है। सभी देश, भाग, कलीसियायें, और प्रदेश भी भविष्य में वचन के द्वारा जीते जायेंगे। परमेश्वर सीधे बात करेगा, और सभी लोग अपने हाथों में परमेश्वर का वचन थामकर रखेंगे; इसके द्वारा लोग पूर्ण बनाए जाएंगे। परमेश्वर का वचन सब तरफ फैलता जायेगा: लोगों का परमेश्वर के वचन को बोलना, और परमेश्वर के वचन के अनुसार आचरण करना, जब हृदय में भीतर रखा जाए तब भी परमेश्वर का वचन है। भीतर और बाहर दोनों तरफ वे परमेश्वर के वचन से भरे हैं और इस प्रकार वे पूर्ण बनाए जाते हैं। परमेश्वर की इच्छा को पूरा करने वाले और वे जो उसकी गवाही देते हैं, वे हैं जिन्होंने परमेश्वर के वचन को वास्तविकता बनाया है।
"वचन देह में प्रकट होता है" से "राज्य का युग वचन का युग है" से
तुम सोच सकते हो कि परमेश्वर पर विश्वास करना कष्ट सहने के बारे में है, या उसके लिए कई चीजें करना है, या तुम्हारी देह की शान्ति के लिए है, या इसलिए है कि तुम्हारे साथ सब कुछ ठीक रहे, सब कुछ आरामदायक रहे-परन्तु इनमें से कोई भी ऐसा उद्देश्य नहीं है जिसे परमेश्वर पर विश्वास करने के लिए लोगों में होना चाहिए। यदि तुम ऐसा विश्वास करते हो, तो तुम्हारा दृष्टिकोण गलत है और तुम्हें मात्र पूर्ण नहीं बनाया जा सकता है। परमेश्वर के कार्य, परमेश्वर की धार्मिक स्वभाव, उसकी बुद्धि, उसके वचन, और उसकी अद्भुतता और अगाधता इन सभी बातों को मनुष्यों को अवश्य समझना चाहिए। इस समझ का उपयोग व्यक्तिगत अनुरोधों, और साथ ही व्यक्तिगत आशाओँ और तुम्हारे हृदय की अवधारणाओं से छुटकारा पाने के लिए करो। केवल इन इन्हें दूर करके ही तुम परमेश्वर के द्वारा माँग की गई शर्तों को पूरा कर सकते हो। केवल इसी के माध्यम से ही तुम जीवन प्राप्त कर सकते हो और परमेश्वर को संतुष्ट कर सकते हो। परमेश्वर पर विश्वास करना उसे संतुष्ट करने के वास्ते औरउस स्वभाव को जीवन बिताने के लिए है जो वह अपेक्षा करता है, इन अयोग्य लोगों के समूह के माध्यम से परमेश्वर के कार्य और उसकी महिमा को प्रदर्शित किया जा सके। परमेश्वर पर विश्वास करने के लिए और उन लक्ष्यों के लिए जिन्हें तुम्हें खोजना चाहिए, यही सही दृष्टिकोण है। परमेश्वर पर विश्वास करने का तुम्हारा सही दृष्टिकोण होना चाहिए और तुम्हें परमेश्वर के वचनों को प्राप्त करने का प्रयास करना चाहिए। तुम्हें परमेश्वर के वचनों को खाने और पीने, और सत्य को जीने, और विशेष रूप से उसके व्यवहारिक कर्मों को देखने, सम्पूर्ण ब्रह्माण्ड में उनके अद्भुत कर्मों को देखने, और साथ ही देह में उसके द्वारा किए जाने वाले व्यवहारिक कार्य को देखने में सक्षम होने की आवश्यकता है। अपने वास्तविक अनुभवों के द्वारा, लोग बस इस बात की सराहना कर सकते हैं कि कैसे परमेश्वर उन पर अपना कार्य करता है, उनके प्रति उसकी क्या इच्छा है। यह सब उनके भ्रष्ट शैतानी स्वभाव को दूर करने के लिए है। अपने भीतर की अशुद्धता और अधार्मिकता से मुक्ति पाओ, अपने गलत इरादों को उतार फेंको, और तुम परमेश्वर में सच्चा विश्वास उत्पन्न कर सकते हो। केवल सच्चा विश्वास रख कर ही तुम परमेश्वर को सच्चा प्रेम कर सकते हो। तुम केवल अपने विश्वास की बुनियाद पर ही परमेश्वर से सच्चा प्रेम कर सकते हो। क्या तुम परमेश्वर पर विश्वास किए बिना उसके प्रति प्रेम को प्राप्त कर सकते हैं? चूँकि तुम परमेश्वर पर विश्वास करते हो, इसलिए तुम इसके बारे में नासमझ नहीं हो सकते हो। कुछ लोगों में जोश भर जाता है जैसे ही वे देखते हैं कि परमेश्वर पर विश्वास करना उनके लिए आशीषें लाएगा, परन्तु सम्पूर्ण ऊर्जा को खो देते है जैसे ही वे देखते हैं कि उन्हें शुद्धिकरणों को सहना पड़ेगा। क्या यह परमेश्वर पर विश्वास करना है? अंत में, परमेश्वर पर विश्वास करना उसके सामने पूर्ण और अतिशय आज्ञाकारिता है। तुम परमेश्वर पर विश्वास करते हो परन्तु फिर भी उससे माँगें करते हो, तुम्हारी कई धार्मिक अवधारणाएँ हैं जिन्हें तुम नीचे नहीं रख सकते हो, तुम्हारे व्यक्तिगत हित हैं जिन्हें तुम जाने नहीं दे सकते हो, और तब भी देह में आशीषों को खोजते हो और चाहते हो कि परमेश्वर तुम्हारी देह को बचाए, तुम्हारी आत्मा की रक्षा करे-ये सब गलत दृष्टिकोण वाले लोगों की अभिव्यक्तियाँ हैं। यद्यपि धार्मिक विश्वास वाले लोगों का परमेश्वर पर विश्वास होता है, तब भी वे स्वभाव-संबंधी बदलाव का प्रयास नहीं करते हैं, परमेश्वर के ज्ञान की खोज नहीं करते हैं, और केवल अपने देह के हितों की ही तलाश करते हैं। तुम में से कई लोगों के विश्वास हैं जो धार्मिक आस्थाओं की श्रेणी से सम्बन्धित हैं। यह परमेश्वर पर सच्चा विश्वास नहीं है। परमेश्वर पर विश्वास करने के लिए लोगों पास उसके लिए पीड़ा सहने वाला हृदय और स्वयं को त्याग देने की इच्छा होनी चाहिए। जब तक वे इन दो शर्तों को पूरा नहीं करते हैं तब तक यह परमेश्वर पर विश्वास करना नहीं माना जाता है, और वे स्वभाव संबंधी परिवर्तनों को प्राप्त करने में सक्षम नहीं होंगे। केवल वे लोग जो वास्तव में सत्य को खोजते हैं, परमेश्वर के ज्ञान की तलाश करते हैं, और जीवन की खोज करते हैं ऐसे लोग हैं जो वास्तव में परमेश्वर पर विश्वास करते हैं।
"वचन देह में प्रकट होता है" से "पूर्ण बनाए जाने वालों को शुद्धिकरण से अवश्य गुज़रना चाहिए" से
परमेश्वर पर अपने विश्वास में, वह सब जो पतरस ने किया था उसमें उसने परमेश्वर को संतुष्ट करने का प्रयास किया था, और वह सब जो परमेश्वर से आता था उसमें उसने आज्ञा मानने का प्रयास किया था। बिना जरा सी भी शिकायत के, वह अपने जीवन में ताड़ना एवं न्याय, साथ ही साथ शुद्धीकरण, क्लेश एवं कमी को स्वीकार कर सकता था, उसमें से कुछ भी परमेश्वर के प्रति उसके प्रेम को पलट नहीं सकता था। क्या यह परमेश्वर का चरम प्रेम नहीं है? क्या यह परमेश्वर के एक प्राणी के कर्तव्य की परिपूर्णता नहीं है? ताड़ना, न्याय, क्लेश-तू मृत्यु तक आज्ञाकारिता हासिल करने में सक्षम है, और यह वह चीज़ है जिसे परमेश्वर के एक प्राणी के द्वारा हासिल किया जाना चाहिए, यह परमेश्वर के प्रेम की पवित्रता है। यदि मनुष्य इतना कुछ हासिल कर सकता है, तो वह परमेश्वर का एक योग्य प्राणी है, तथा ऐसा और कुछ नहीं है जो सृष्टिकर्ता की इच्छा को बेहतर ढंग से संतुष्ट कर सकता है। कल्पना कर कि तू परमेश्वर के लिए काम कर सकता है, फिर भी तू परमेश्वर की आज्ञा नहीं मानता है, और सचमुच में परमेश्वर से प्रेम करने में असमर्थ है। इस रीति से, तूने न केवल परमेश्वर के एक प्राणी के अपने कर्तव्य को नहीं निभाया होगा, बल्कि तू परमेश्वर के द्वारा निन्दित भी किया जाएगा, क्योंकि तू ऐसा व्यक्ति है जो सत्य को धारण नहीं करता है, जो परमेश्वर की आज्ञा का पालन करने में असमर्थ है, और जो परमेश्वर के प्रति अनाज्ञाकारी है। तू केवल परमेश्वर के लिए कार्य करने के विषय में परवाह करता है, और सत्य को अभ्यास में लाने, या स्वयं को जानने के विषय में कोई परवाह नहीं करता है। तू सृष्टिकर्ता को समझता एवं जानता नहीं है, और सृष्टिकर्ता के प्रेम या उसकी आज्ञा का पालन नहीं करता है। तू ऐसा व्यक्ति है जो सहज रूप से परमेश्वर के प्रति अनाज्ञाकारी है, और इस प्रकार ऐसे लोग सृष्टिकर्ता के प्रिय नहीं है।
"वचन देह में प्रकट होता है" से "सफलता या असफलता उस पथ पर निर्भर होती है जिस पर मनुष्य चलता है" से
परमेश्वर पर विश्वास करना परमेश्वर को जानने की ओर पहला कदम है। परमेश्वर में प्रारम्भिक विश्वास से परमेश्वर पर सबसे गहरा विश्वास तक आगे बढ़ने की प्रक्रिया परमेश्वर को जानने की प्रक्रिया है, और परमेश्वर के कार्यों का अनुभव करने की प्रक्रिया है। यदि तुम परमेश्वर पर विश्वास केवल विश्वास दिखाने के लिए करते हो, न कि परमेश्वर को जानने के लिए उस पर विश्वास करते हो, तो तुम्हारे विश्वास में कुछ भी सत्य नहीं है, और यह शुद्ध नहीं होसकता है - इसमें कुछ भी संदेह नहीं है। यदि परमेश्वर का अनुभव करने की प्रक्रिया में, मनुष्य धीरे-धीरे परमेश्वर को जानने लगता है, तो उसका स्वभाव भी धीरे-धीरे बदलेगा, और उसका विश्वास उत्तरोत्तर सत्य होगा। इस प्रकार से, जब मनुष्य परमेश्वर पर विश्वास करने में सफलता प्राप्त करता है, वह पूरी तरह से परमेश्वर को प्राप्त कर लेगा। परमेश्वर इस हद तक चला गया कि वह दूसरी बार देहधारण करके आया और व्यक्तिगत तौर पर अपने कार्य को किया ताकि मनुष्य उसे जान सके, और उसे देख सके। परमेश्वर को जानना[ख]परमेश्वर के कार्य के अंत में अंतिम प्रभाव को प्राप्त करना है; यही परमेश्वर की मानवजाति से अंतिम अपेक्षा है। यह उसने अपनी निर्णायक गवाही की खातिर करता है, ताकि मनुष्य अंततः और पूरी तरह से उसकी ओर फिरे। मनुष्य परमेश्वर से प्रेम केवल परमेश्वर को जान करके ही कर सकता है और परमेश्वर को प्रेम करने के लिए उसे परमेश्वर को जानना होगा। इससे कुछ भी फर्क नहीं पड़ता कि वह कैसे खोजता है या क्या प्राप्त करने के लिए खोज करता है, उसे परमेश्वर का ज्ञान प्राप्त करने के योग्य बनना आवश्यक है। केवल इसी प्रकार से मनुष्य परमेश्वर के हृदय को संतुष्ट कर सकता है।
"वचन देह में प्रकट होता है" से "केवल वही जो परमेश्वर को जानते हैं, उसकी गवाही दे सकते हैं" से
फुटनोट:
क. मूल पाठ में "दृष्टांत मे" नहीं है।
ख. मूलपाठ है "अनुसरण कर रहा था"

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