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शुक्रवार, 4 अगस्त 2017

अध्याय 16. व्यावहारिक परमेश्वर में तीन विश्वास

परमेश्वर के परिवार के भीतर, परमेश्वर में कई अलग-अलग विश्वास हैं; यह देखने के लिए कि तुम किस विश्वास से संबंधित हो इन अलग-अलग विश्वासों की पहचान अवश्य करनी चाहिए।
पहली तरह के विश्वास के साथ, जो कि सर्वोत्तम प्रकार का भी है, व्यक्ति सभी चीजों में परमेश्वर के वचन में विश्वास करने में समर्थ होता है; वह परमेश्वर के सभी प्रकटनों, व्यवहारों, और काट-छाँट को स्वीकार कर पाता है; वह परमेश्वर की इच्छा के लिए सचेत रहता है, वह प्यार करता है, परमेश्वर के प्रति निष्ठावान रहता है, और उसकी अर्चना करता है, और वह सत्य का अभ्यास करने के लिए तैयार रहता है। ऐसा विश्वास जीवन को उपजाता है, और किसी को स्वभाव में परिवर्तन प्राप्त करने और परमेश्वर के द्वारा प्राप्त किए जाने में सक्षम बनाता है।
दूसरी तरह के विश्वास के साथ, व्यक्ति आंशिक रूप से परमेश्वर में विश्वास करता है, किंतु आंशिक रूप से संदिग्ध भी रहता है। जब उसे परमेश्वर का कार्य स्वीकार्य नहीं होता है, तो वह, यह प्रश्न करते हुए कि क्या परमेश्वर ऐसी चीजें कर रहा होना चाहिए, अपने हृदय में तुलना करेगा। वह प्रायः परमेश्वर के बारे में संदिग्ध रहता है, इसलिए वह केवल आंशिक रूप से परमेश्वर की आज्ञा का पालन करने में समर्थ होता है, और वह अन्य चीजों में परमेश्वर की आज्ञा का पालन करने में असमर्थ होता है; वह उसी आज्ञा का पालन कर सकता है जिसे वह मानता है कि सही है, किंतु जब उसका सामना उन बातों से होता है जिन्हें वह महसूस करता है कि गलत हैं, तो अपने हृदय में संघर्ष के साथ, उसकी अपनी धारणाएँ हैं, और उन्हें करने से मना कर देता है। यह भी एक प्रकार का विश्वास है। आजकल ज्यादातर लोगों का कद इसी तरह का है, वे केवल उसी आज्ञा का पालन करने में समर्थ होते हैं जिसे वे महसूस करते हैं कि सही है, वे उसी आज्ञा का पालन करने में असमर्थ होते हैं जिसे वे महसूस करते हैं कि गलत है, और वे उसे नहीं करेंगे जिसे करने के वे अनिच्छुक हैं। इसी तरह, कभी-कभी जब मनोदशा बनती है, तो वे, यह महसूस करते हुए कि उन्हें परमेश्वर के बोझ के प्रति चौकस होना चाहिए, परमेश्वर के साथ उत्कट हो जाते हैं, ताकि वे अपने कर्तव्यों को पूरा करें; या कभी-कभी वे समागम करने के साथ पकड़े जाते हैं, वे परमेश्वर को काफी प्यारा पाते हैं, और केवल अब ही वे कुछ-कुछ परमेश्वर में आश्वस्त होते हैं। अधिकांशतः, परमेश्वर में उनका विश्वास मात्र भीड़ का अनुसरण करना है; उनमें परमेश्वर के प्रति प्रेम नहीं है, और न ही परमेश्वर की ओर उनका ध्यान है, जबकि वे निश्चित रूप से सही मायने में आज्ञा का पालन और परमेश्वर की आराधना नहीं कर रहे हैं। परमेश्वर में इस तरह का विश्वास करने वाले लोगों के लिए, उनमें, कुछ समय के लिए, परमेश्वर के लिए प्रेम, मनोयोग और आज्ञाकारिता की केवल एक सामान्य मात्रा होती है, और यह केवल तभी होता है जब पवित्र आत्मा विशेष रूप से हृदय को स्पर्श कर रही हो, जब पवित्र आत्मा अपना काम कर रही हो। जब वे किसी बुरी स्थिति में होते हैं अथवा जब वे दूसरों के द्वारा भ्रमित किये जाते हैं, जब वे कमजोर और हताश होते हैं, तब ये चीजें चली जाती हैं, गायब हो जाती हैं, जबकि उन्हें स्वयं कोई भनक भी नहीं लगती है कि कैसे वह आ कर गुजर गई है। भले ही वे चाहें तब भी वे अब परमेश्वर से प्रेम नहीं कर पाते हैं, वे परमेश्वर के वचन का अब और अभ्यास करने के लिए प्रेरित नहीं होते हैं, और तब वे परमेश्वर के कार्य को बहुत साधारण, बहुत सामान्य, के रूप में देखते हैं; भले ही वे अब और संदिग्ध नहीं हों, उनमें अब कोई पहल नहीं होती है। अधिकांश लोगों का कद इस चरण में होता है, और यह दूसरे प्रकार का विश्वास है।
तीसरी तरह के विश्वास के साथ, व्यक्ति को देहधारी परमेश्वर की कोई समझ नहीं होती है, उसे वे केवल एक साधारण व्यक्ति की तरह लगते हैं, और कोई बड़ा अंतर नहीं दिखाई दे सकता है। इसलिए, वह परमेश्वर अवतार को बस किसी साधारण, किंतु एक सम्मानजनक स्थिति वाले, के रूप में मानता है, वह परमेश्वर के साथ-साथ चलने और कुछ अच्छा कहने में समर्थ होता है, और विश्वास में साथ-साथ अनुसरण कर पाता है, किंतु यह विश्वास एक वास्तविक विश्वास नहीं है। वह कभी-कभार कुछ क्षुद्र मामलों के साथ जाने में सक्षम होता है, किंतु इस तरह के किसी व्यक्ति में परमेश्वर के लिए कोई प्रेम नहीं होता है – प्रेम शरीर का ध्यान रखना नहीं बल्कि किसी के कार्य में वास्तविक आज्ञाकारिता और किसी के कर्तव्यों को पूरा करने, परमेश्वर के प्रति चौकस रहने और परमेश्वर का सम्मान करने में है। परमेश्वर के लिए प्रेम कुछ ऐसा है जिसे केवल काफी अनुभवों वाला ही कोई खुल कर दावा कर पाता है, यह कुछ ऐसा नहीं है जिसे कोई ऐसे ही कह सके, कई लोग कहते हैं कि यह देखते हुए कि कोई भावुक है इसलिए फलां-फलां वास्तव में परमेश्वर से प्रेम करता है, या कहें कि एक निश्चित संप्रदाय के लोग वास्तव में परमेश्वर से प्यार करते हैं। यह बकवास है। जब क्षुद्र मामलों की बात आती है तो इस तरह का एक व्यक्ति मुश्किल से स्वीकार और आज्ञा का पालन कर सकता है, और जब महत्वपूर्ण मामलों का सामना करता है जिसमें सत्य शामिल होता है, तो वह न केवल आज्ञा का पालन नहीं कर पाता है, उसकी स्वयं की धारणाएँ भी होती है, यहाँ तक कि वह परमेश्वर के बारे में संदिग्ध भी हो जाता है। ऐसे लोग बहुमत में भी हैं। वे परमेश्वर के बारे में निरंतर संदिग्ध हैं: क्या यह परमेश्वर है? ऐसा कैसे है कि वह परमेश्वर की तरह नहीं दिखाई देता है? उनके द्वारा कही गई कुछ बातें संभवतः पवित्र आत्मा के द्वारा निर्देशित हैं। पवित्र आत्मा ने उन्हें कुछ बातें कहने, और कुछ चीजें करने के लिए निर्देशित किया है। ऐसे लोगों का विश्वास सबसे दयनीय है।
परमेश्वर में किसी व्यक्ति के विश्वास का स्तर, परमेश्वर के प्रति आज्ञाकारिता, प्रेम, ध्यान, और परमेश्वरके प्रति श्रद्धा, मुख्य रूप से निम्नलिखित द्वारा निर्धारित होती है:
सबसे पहले, यह इस बात पर आधारित है कि क्या व्यक्ति सत्य को प्रेम करता है। यदि तुम सत्य को प्रेम करते हो तो तुम इसका आगे अनुसरण करते रह सकते हो, तब तुम सत्य की, परमेश्वर के वचन की, परमेश्वर के कार्य की, परमेश्वर के अवतार की, परमेश्वर के स्वभाव की समझ पर ध्यान केन्द्रित कर सकते हो, और परमेश्वर की समझ मुख्य रूप से इसी एक बात पर आधारित है। जितना अधिक तुम परमेश्वर को समझ सकते हो उतना ही अधिक तुम उनकी पहचान कर सकते हो; जितना अधिक तुम परमेश्वर को समझ सकते हो उतना ही अधिक तुम दृढ़तापूर्वक उनका अनुसरण कर सकते हो। अर्थात्, परमेश्वर की समझ सत्य का अनुगमन करने पर आधारित है।
दूसरा, यह देहधारी परमेश्वर की व्यक्ति की समझ पर आधारित है, यह मुख्य बात है। व्यावहारिक परमेश्वर की समझ के बिना, परमेश्वर की आज्ञा मानना, परमेश्वर से प्रेम करना, परमेश्वर की गवाही देना, और परमेश्वर की सेवा करना सभी रिक्त शब्द हैं। इस तरह की बातें मात्र अप्राप्य हैं।
तीसरा, यह व्यक्ति की मानवता पर आधारित है, किंतु यह पूर्ण नहीं है। क्योंकि, कुछ लोगों में अच्छी मानवता होती है, ये अच्छे लोग हैं, किंतु वे सत्य से प्यार नहीं करते हैं। यदि उन्हें परमेश्वर अवतार की बिल्कुल भी कोई समझ न हो, तो उनका विश्वास टिक नहीं सकता, और कभी-कभी उनकी सदाशयताएँ अज्ञानतावश रुकावट का कारण बनती हैं। क्या तुम कह सकते हो कि ये ही वे लोग हैं, जो वास्तव में परमेश्वर में विश्वास करते हैं? वे उत्साही हैं, अच्छे स्वभाव के हैं, और कुछ अच्छी चीजें करते हैं, किंतु ये केवल सतह पर अच्छे व्यवहार हैं, ये सतही दिखावे हैं, ये नहीं दर्शाते है कि उनका विश्वास वास्तविक है। यदि तुम कहते हो कि तुम वास्तव में परमेश्वर में विश्वास करते हो, वास्तव में परमेश्वर से प्रेम करते हो, तो तुम्हें यह कहने में सक्षम होना चाहिए कि तुम परमेश्वर से प्रेम क्यों करते हो, तुम्हारा परमेश्वर का प्रेम किस पर आधारित है, तुम क्यों उन में विश्वास करते हो, क्या तुम बस भीड़ का अनुसरण कर रहे हो या क्या तुम इस लिए विश्वास करते हो क्योंकि तुम सच में उन्हें परमेश्वर के रूप में देख सकते हो, परमेश्वर का तुम्हारा विश्वास और प्रेम किन सत्यों पर आधारित हैः ये मूल सिद्धांत द्वारा समर्थित अवश्य होने चाहिए। कुछ लोगयह कहना पसंद करते हैं कि वे वास्तव में परमेश्वर में विश्वास करते हैं और परमेश्वर से प्रेम करते हैं, किंतु जब कोई गंभीरता से उनके साथ सत्य पर संवाद करना चाहता है, तो उनके पास कहने को कुछ नहीं होता है। मैंने कई लोगों को कहते सुना है: "परमेश्वर जो कुछ भी कहते हैं वह मैं सुनता हूँ, परमेश्वर जो कहते हैं, वह उन्हें किसी भी तरीके से कहें, मैं उस सब पर विश्वास करता हूँ। परमेश्वर क्या कहते हैं उसकी परवाह किए बिना मेरी स्वयं की कोई धारणा नहीं है, परमेश्वर क्या करते हैं उसकी परवाह किए बिना मेरी स्वयं की कोई धारणा नहीं है।" क्या तुम सच में कोई हो जो परमेश्वर को सिर्फ इसलिए प्रेम करता है क्योंकि तुमने इस तरह की बातें कही? तुम्हें वास्तविक अनुभव अवश्य होना चाहिए, तुम्हें परमेश्वर अवतार की वास्तविक समझ के बारे में बात करने में सक्षम अवश्य होना चाहिए। इसके अलावा, परमेश्वर की महत्वपूर्ण विशेषता क्या है, वे कौन सी बातें हैं जिनमें लोगों को परमेश्वर की आज्ञा का पालन करना कठिन लगता है, वे कौन सी बातें हैं जिनमें लोग परमेश्वर की आज्ञा का पालन कर सकते हैं, वे परमेश्वर की आज्ञा का कितना पालन करते हैं, वे कौन सी चीजें हैं जिनमें तुम परमेश्वर की आज्ञा का पालन करने में असमर्थ हो, तुम कैसे परमेश्वर की अपनी धारणाओं का समाधान करते हो, तुम कैसे धीरे-धीरे परमेश्वर की अपनी समझ को गहरा करते हो? यदि तुम में इस तरह के अनुभवों की कमी है, तो तुम्हें परमेश्वर से सच्चा प्रेम नहीं है। कुछ लोग विशेष रूप से खुश होते हैं जब वे परमेश्वर के आगमन को देखते हैं, वे सत्कार के साथ उनका स्वागत करते हैं, और जब परमेश्वर विदा होता है तो वे रोते हैं। अन्य लोगों को लगता है कि यह परमेश्वर के लिए उनके प्रेम की एक अभिव्यक्ति है, किंतु क्या यह सच में दिखा सकता है कि वह परमेश्वर से प्रेम करता है? यह केवल यही दिखा सकता है कि उसका हृदय सच्चा है, किंतु कोई यह नहीं कह सकता है कि उसके कार्य और प्रदर्शन परमेश्वर से प्रेम हैं, यह कि यह एक सच्चा विश्वास है। कुछ लोग थोड़ा सा पैसा दान करते हैं, किंतु क्या यह परमेश्वर से प्रेम है? या जब तुमसे कहा जाता है तब तुम पानी का एक गिलास उँड़ेलने की हड़बड़ी करते हो, किंतु क्या यह सच्ची आज्ञाकारिता है? इसी तरह, कुछ लोग कहते हैं: "परमेश्वर के वचन पढ़ने के बाद मुझे परमेश्वर में विश्वास हुआ, मुझे परमेश्वर के अवतार में विश्वास हुआ, जब मैने परमेश्वर को साधारण शरीर में देखा तो मुझे कोई संदेह नहीं हुआ।" क्या इसे सच्चा विश्वास कहा जा सकता है? क्या तुमने परमेश्वर के साथ व्यवहार किया था? तुम उनके साथ सम्बद्ध हुए थे? क्या तुम उनके स्वभाव को जानते हो? क्या तुम्हारे पास वह है जो उन्हें पसंद है? क्या तुम तुम्हारे द्वारा की जाने वाली उन चीजों को जानते हो जो उनके स्वभाव का अपमान करती हैं? क्या तुम्हें अपने अंदर भ्रष्टाचार का ज्ञान है जिसेवे नापसंद करते हैं? क्या तुम उन लोगों को जानते हो जिन पर वे अपना धर्मी स्वभाव लाए हैं? क्या तुम जानते हो कि वे किन लोगों से घृणा करते हैं? क्या तुम जानते हैं कि तुम्हारे ऐसे कौन से मुद्दे हैं जिनसे वे सबसे अधिक घृणा करते हैं? यदि तुम्हें इस तरह किसी भी बात का कोई पता नहीं है, तो यह दर्शाता है कि तुम्हें सच में परमेश्वर की कोई समझ नहीं है। तुम नहीं कह सकते हो कि तुम सच में परमेश्वर में विश्वास करते हो, तुम नहीं कह सकते हो कि तुम पूर्णतः परमेश्वर की आज्ञा का पालन करते हो, और तुम निश्चित रूप से नहीं कह सकते हो कि तुम परमेश्वर की इच्छा के अनुसार चीजों को कर रहे हो, यह कि तुम परमेश्वर से प्यार करते हो, परमेश्वर की आज्ञा का पालन करते हो, या परमेश्वर को समझते हो। तुम केवल इतना ही कह सकते हो कि इस मामले में, तुम उनकी इच्छा को समझते हो, जानते हो कि उन्हें क्या पसंद है, यह कि इस मामले में तुम परमेश्वर की इच्छा के अनुसार कार्य कर रहे हो, यह कि तुम सच्चाई के अनुसार कार्य कर रहे हो, यह कि इस मामले में तुम उनकी आज्ञा का पालन करते हो। क्या तुम कोई परमेश्वर के आज्ञाकारी केवल इसलिए हो क्योंकि इस मामले में तुमने उनकी बात मानी है? तुम ऐसा नहीं कह सकते हो, और बस कुछ सतही चीज पर आधारित यह कहना कि कोई परमेश्वर से प्रेम करता है, यह एक बड़ी गलती है। यह तथ्य कि तुमने कुछ अच्छा किया है, या तुमने परमेश्वर की विशेष रूप से परवाह की है, मात्र यह दर्शाता है कि तुम एक दयालु व्यक्ति हो, किंतु यह नहीं दर्शाता है कि तुम परमेश्वर की इच्छा के प्रति सचेत हो। वास्तव में, परमेश्वर से प्रेम और परमेश्वर की इच्छा के प्रति सचेत होना मानवता की नींव पर बनते हैं, और मानवता के बिना परमेश्वर से कोई प्यार नहीं किया जा सकता है, इसलिए तुम में से हर एक को स्वयं की जाँच करनी चाहिए और देखना चाहिए कि तुम कहाँ पर हो। कुछ लोगों को लगता है कि वे लगभग वहीं हैं, किंतु यह यथार्थवादी नहीं है; तब भी कुछ लोग चरम तक जाते हैं और सोचते हैं उनके बारे में कुछ भी अच्छा नहीं है, यह कि उन्हें छोड़ा नहीं जा सकता है, और यह एक नकारात्मक प्रवृत्ति है। कुछ लोगों को लगता है कि उन में कोई अच्छाई नहीं है, और कुछ लोग स्वयं को ऐसे के रूप में परिभाषित करते हैं जो परमेश्वर को प्यार करता है। वे या तो अत्यंत बाएँ या अत्यंत दाएँ होते हैं, यही इन लोगों की वास्तविकता है, जो दर्शाती है कि वे अभी तक सही पथ पर नहीं हैं। उन्हें परमेश्वर की इच्छा के अनुरूप होने के लिए सच्चाई पर स्पष्ट होने और वास्तविकता में प्रवेश करने का प्रयास करते रहना चाहिए।

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