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सर्वशक्तिमान परमेश्वर की कलीसिया की मूलभूत मान्यताएँ

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गुरुवार, 7 नवंबर 2019

ईमानदार व्यक्ति होना आसान नहीं है

ज़िक्सिन, हुबेई प्रांत
सर्वशक्तिमान परमेश्वर के अंत के समय के कार्य को स्वीकार करने के बाद, परमेश्वर के वचनों को पढ़ने और उपदेशों को सुनने के माध्यम से, मुझे अपने विश्वास में एक ईमानदार व्यक्ति होने का महत्व समझ में आया, और मैं जान पाई कि केवल एक ईमानदार व्यक्ति बनकर ही कोई परमेश्वर का उद्धार पा सकता है।
इसलिए मैंने वास्तविक जीवन में एक ईमानदार व्यक्ति बनने का अभ्यास करना शुरू किया। कुछ समय के बाद, मैंने पाया कि मुझे इसमें कुछ प्रवेश मिला है। उदाहरण के लिए: प्रार्थना करने या किसी के साथ बातचीत करते समय, मैं सच बोल सकती थी और दिल से बात करने में सक्षम थी; मैं अपना कर्तव्य गंभीरता से पूरा कर सकती थी, और अपनी भ्रष्टता का खुलासा करते समय मैं अपनी स्थिति को अन्य लोगों के सामने खोलकर बता सकती थी। इस वजह से, मैंने सोचा कि एक ईमानदार व्यक्ति होने का अभ्यास करना काफ़ी आसान था, और यह उतना मुश्किल नहीं था जितना कि परमेश्वर के इन वचनों में बताया गया था: "बल्कि बहुत से लोग ईमानदारी से बोलने और कार्य करने की अपेक्षा नरक के लिए दण्डित किए जाएँगे" ("वचन देह में प्रकट होता है" में "तीन चेतावनियाँ")। परन्तु, बाद में कई अनुभवों के माध्यम से ही मैं यह समझ पाई थी कि वास्तव में हम भ्रष्ट मनुष्यों के लिए ईमानदार व्यक्ति बन पाना आसान नहीं है। परमेश्वर के वचन वास्तव में पूरी तरह से सही और अतिशयोक्ति से बिलकुल मुक्त हैं।

एक दिन जब मैं एक दस्तावेज़ का संकलन कर रही थी, मैंने पाया कि कलीसिया की एक बहन दस्तावेज़ों को संकलित करने में मुझसे बेहतर थी। तब मैंने सोचा: "मुझे उन दस्तावेज़ों को, जिन्हें वह संकलित करती हैं, बहुत सावधानी से संभालना होगा, वर्ना अगर अगवाओं को लगा कि वह मुझसे बेहतर है और वे उसे पदोन्नत करते हैं, तो मेरी अपनी स्थिति जोखिम में पड़ सकती है।" इस विचार के आने के बाद, मेरी अंतरात्मा ने मुझे दोषी ठहराया। इसकी जाँच और विश्लेषण करने के बाद मैंने स्वीकार किया कि यह प्रतिष्ठा और लाभ के लिए संघर्ष करने और सच्ची प्रतिभा के प्रति ईर्ष्यालु होने की एक अभिव्यक्ति थी, इसलिए मैंने परमेश्वर से प्रार्थना की और तुरंत अपने अहम् को त्याग दिया। एक सभा में, मैं पहले मूल रूप से खुले तौर पर अपनी भ्रष्टता को जाहिर करना चाहती थी, लेकिन फिर मैंने सोचा: "अगर मैं अपने बुरे इरादों पर सहभागिता करती हूँ, तो वह बहन जिसके साथ मैं काम करती थी और मेरे मेजबान परिवार की बहन मेरे बारे में क्या सोचेंगी? क्या वे कहेंगी कि मेरा दिल बहुत दुर्भावनापूर्ण है और मेरी प्रकृति बहुत दुष्ट है? इसे भूल जाओ, बेहतर होगा कि मैं इसे न कहूँ। यह सिर्फ एक विचार था, और ऐसा नहीं है कि मैंने वास्तव में ऐसा किया हो।" इसी तरह, मैंने केवल हलके-से इस बात का उल्लेख किया कि जब मैंने किसी और को दस्तावेज़ों को अच्छी तरह संकलित करते देखा, तो मैं कितना घबरा गई थी कि मेरा काम उसे सौंप दिया जाएगा—मैंने अपने असली अन्धकारपूर्ण पक्ष को छिपा लिया। उसके बाद मेरे दिल में अपराध-बोध बढ़ गया। इसलिए मैंने परमेश्वर के सामने शपथ ली कि ऐसा केवल एक बार होगा, और अगली बार मैं निश्चित रूप से एक ईमानदार व्यक्ति बनने का अभ्यास करुँगी।
कुछ दिनों बाद मेरी सहयोगी और मेरी मेजबान परिवार की बहन के साथ बातचीत करते हुए, मैंने मेजबान परिवार की बहन को यह कहते सुना कि उसके घर में रहने वाली दो बहनें कितनी महान थीं (मैं भी उन्हें जानती थी), लेकिन उसने कभी इस बारे में एक शब्द भी नहीं कहा कि मैं कितनी अच्छी थी। मुझे बहुत दुख हुआ। वह मेरे बारे में अच्छा सोचे इसलिए, मैंने उन दो बहनों की खामियों को एक-एक करके गिनाया ताकि उसे यह दिखाया जा सके कि वे मेरे जितनी अच्छी नहीं थीं। यह कहने के बाद, मुझे एहसास हुआ कि मैंने जो कहा था वह अनुचित था, दरअसल मेरा इरादा और उद्देश्य खुद को ऊँचा उठाने के लिए दूसरों को नीचे गिराना था। लेकिन मैं इतनी शर्मिंदा थी कि इसे खुलकर नहीं कह पाई, इसलिए मैंने मेजबान परिवार की बहन से कहा: "जब मैंने तुम्हें उन दो बहनों की प्रशंसा करते हुए सुना, तो मुझे लगा कि तुम्हारे दिल में बहुत सी धारणाएं हैं, इसलिए मुझे उनकी छवि को नुकसान पहुँचाना होगा ताकि तुम आगे से उन्हें अपने आदर्श न मानो।" जैसे ही मैंने ये कहा, जो बहन मेरी सहयोगी थी, वह बोली: "यह इस बात पर निर्भर करता है कि क्या तुम्हारा कोई गुप्त अभिप्राय था। यदि हाँ, तो यह वास्तव में भयावह है। यदि नहीं, तो इसे केवल भ्रष्टता का खुलासा कहा जा सकता है।" उसे ऐसा कहते सुनकर, मैं बहुत डर गई कि उनके मन में मेरे बारे में एक बुरी छवि बन जाएगी, इसलिए मैंने जल्दी ही अपनी बात समझाने की कोशिश की: "मेरा कोई भी गुप्त अभिप्राय नहीं था। बात सिर्फ इतनी है कि मैंने इसे सही तरीक़े से नहीं कहा था...।" इस दिखावे के तर्क के बाद, मैं बेहद परेशान हो गई और और जब मैंने प्रार्थना की तो अन्दर से मैं विशेष रूप से अपराधी महसूस करने लगी: "तुम बहुत चालाक हो। तुम गोल-मोल तरीक़ों से बात करती हो, झूठ बोलती हो, और सच्चाई पर पर्दा डालती हो, हमेशा अपने बुरे इरादों और घमंडी महत्वाकांक्षाओं को लुकाती-छुपाती फिरती हो। क्या यह परमेश्वर को धोखा देना नहीं है?" तब भी, मैं कठोर बनी रही, मैंने पश्चाताप नहीं किया, और मैंने केवल परमेश्वर से माफ़ी के लिए विनती की।
अगले दिन, मुझे अचानक तेज़ बुखार हो गया, और मेरे शरीर के हर-एक जोड़ में दर्द था। पहले मैंने सोचा कि मुझे रात में ठण्ड लग गई थी और अगर मैं कुछ दवा ले लूँगी, तो ठीक हो जाऊँगी। लेकिन किसे मालूम था—दवा लेने से कोई लाभ न हुआ, और दो दिन बाद तो मैं बिस्तर से उठ ही नहीं पाई। और तो और, मेरी जीभ सूखकर सख्त हो गई, और मेरा गला भी दर्द से सूज गया, इतना दर्द हो रहा था कि मैं बोल भी नहीं सकती थी। खाने की बात तो दूर, कुछ निगल पाना भी काफ़ी मुश्किल था। इस अचानक आई बीमारी से मैं डर गई, और मैंने बार-बार अपने दिल में परमेश्वर से प्रार्थना की। उस पल में, मुझे समझ आया कि यह बीमारी कोई अचानक से नहीं हुई थी, और इसलिए, इस अवधि के दौरान मैंने जो कुछ भी सोचा या कहा था, उन सभी चीज़ों पर आत्म-चिंतन करने के लिए, मैं परमेश्वर के सामने आ गई। जैसे ही मैंने चिंतन किया, मैं समझ गई कि ऐसा कई बार हुआ था जब मैंने टाल-मटोल करते हुए बात की थी और अपने घृणित उद्देश्यों को छिपाया था। मैं बिलकुल अच्छी तरह से जानती थी कि मैं केवल झूठ बोल रही थी और अपनी बहनों को धोखा दे रही थी, मुझे अपने अंदर ग्लानि की भावना भी महसूस हो रही थी, लेकिन फिर भी मुझे सच बोलने का साहस नहीं हुआ था। मुझे यह एहसास भी नहीं था कि मेरे कुटिल तौर-तरीक़े पहले ही मेरी दूसरी प्रकृति बन चुके थे, और अब मैं असहाय थी। अपने रुतबे और पद की खातिर, अपने व्यर्थ गुमान और अपनी प्रतिष्ठा के लिए, मैंने निर्लज्जता से परमेश्वर को और मेरी बहनों को बार-बार धोखा देने की कोशिश की थी। मैंने अपनी भ्रष्टता के बारे में स्वेच्छा से खुलासा नहीं किया था और अपनी समस्याओं का हल करने के लिए मैंने सच्चाई की खोज नहीं की थी; अगर मैं इसी तरह से चलती रही, तो क्या अंत में ख़ुद मुझे ही नुकसान का सामना नहीं करना पड़ेगा? परमेश्वर मनुष्यों के अंतरतम हृदय की जाँच करता है, चाहे मैंने खुद को छिपाने की जितनी भी कोशिश की हो, मैं अपनी घृणित कुरूपता पर परदा न डाल सकी थी। एक बार जब मैं खुद को कुछ समझ पाई, तो मैंने परमेश्वर के सामने घुटने टेककर प्रार्थना की: "हे परमेश्वर! अब मैं समझ गई हूँ कि मैं कितनी भ्रष्ट हूँ। अपनी धोखेबाज़ प्रकृति से नियंत्रित होने के कारण, मुझे ईमानदारी का एक शब्द भी कहना मुश्किल लगता है। हे परमेश्वर! मैं चाहती हूँ कि तुम मुझे खुलकर बताने, अपनी गलतियों को उजागर करने और तुम्हारे सामने एक ईमानदार व्यक्ति बनने में मेरा मार्गदर्शन करो।" परमेश्वर के मार्गदर्शन में, मैंने अंत में अपनी हिम्मत बढ़ाई और मेरी बहनों को शुरुआत से अंत तक पूरी बात सच-सच बता दी। तब जाकर मेरे दिल ने कुछ शांत और सहज महसूस किया।
केवल इस अनुभव से गुज़रकर ही मैं गहराई से यह समझ पाई कि परमेश्वर के ये वचन "बल्कि बहुत से लोग ईमानदारी से बोलने और कार्य करने की अपेक्षा नरक के लिए दण्डित किए जाएँगे" वास्तव में सच हैं। शैतान द्वारा भ्रष्ट किये जाने के बाद, झूठ बोलना, धोखा देना और चालबाज़ी में शामिल होना मानव प्रकृति बन गई और यह इंसानों के दिलों में गहराई से पैठ गई। उस पर, लोग वास्तव में प्रतिष्ठा, रुतबे और सभी तरह के लाभों को संजोने में जुटे रहते हैं; जो लोग इन चीज़ों से बाधित हैं, उन्हें ईमानदारी से बात करना बहुत मुश्किल लगता है। इसलिए, लोगों को एक ईमानदार व्यक्ति बनना आसमान पर चढ़ने से अधिक कठिन लगता है। मैं सोचा करती थी कि एक ईमानदार व्यक्ति बनना आसान था। ऐसा इसलिए था क्योंकि मैं जिन बातों को खुलकर उजागर किया करती थी, वे केवल वो महत्वहीन भ्रष्टताएँ थीं जिनके बारे में हर कोई अक्सर सहभागिता में बात करता है। मेरी आत्मा की गहराइयों में पैठ चुकी बातों से उनका कोई लेना-देना नहीं था, इसलिए उन चीज़ों के बारे में बात करने से मैं किसी की नज़रों में गिर नहीं जाती थी। इस तरह का अभ्यास इस पूर्व शर्त के अधीन था कि वे सब (सिर्फ) सतही कार्रवाइयाँ थीं और वे मेरे व्यक्तिगत हितों को नहीं छू पाएँगी। अगर इसका मेरे महत्वपूर्ण हितों, मेरे रुतबे और मेरी छवि पर असर पड़ता, तो मेरी प्रकृति खुद इन्हें प्रकट कर देती और तब मैं अपने छद्मवेश को बनाये नहीं रख सकती थी। सत्य को अपने सामने पाकर, मैंने गहराई से इस बात की सराहना की कि वास्तव में एक ईमानदार व्यक्ति बनना आसान नहीं है। विशेष रूप से मेरे जैसे किसी व्यक्ति के लिए, जो प्रतिष्ठा और रुतबे को इतना महत्वपूर्ण मानता हो, अगर मैं मान-सम्मान के सभी विचारों को किनारे नहीं कर देती हूँ, अगर परमेश्वर की ताड़ना और उसका न्याय मेरे साथ न हों, तो मैं अभ्यास में एक ईमानदार व्यक्ति होने की सच्चाई की वास्तविकता में पूरी तरह से असमर्थ रहूँगी। अब से, मैं निष्ठापूर्वक सच्चाई का अनुसरण करूँगी, परमेश्वर के सभी वचनों को स्वीकार करूँगी, और अपनी खुद की धोखेबाज़ प्रकृति को और भी गहराई से समझूँगी। मैं अपने मान-सम्मान और रुतबे को किनारे रख दूँगी और वास्तव में एक ईमानदार व्यक्ति बनूँगी; परमेश्वर के प्रेम का ऋण चुकाने के लिए मैं एक सच्चे मानव की तरह जीऊँगी।

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